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इंसाफ के इंतजार में बूढी होती फाईलें, तीन करोड़ मामलों को सुनवाई का इंतजार-

अदालतों में

अदालतों में इंसाफ में देरी अन्याय के समान है। न्याय के लिए फरियाद करने वालों के हक में कही गई और न्याय व्यवस्था की जिममेदारी को परिभाषित करती ये एक लाईन बेहद ख्यात है, लेकिन हम इंसाफ में देरी से बुरी तरह जूझ रहे हैं।

तारीख पर तारीख का सिलसिला जारी है। अदालतों में जजों की कमी है। उनमें बढ़ौतरी तो दूर जितने पद हैं उनमें से भी आधे खाली चले आ रहे हैं। देश भर की जिला और अधीनिस्थ अदालतों में 5915 पद खाली चले आ रहे हैं। जबकि देश के 24 उच्च न्यायालयों में 410 पद खाली हैं। सुप्रीम कोर्ट में भी 7 पद खाली हैं। इसका  नतीजा मामलों की सुनवाई में देरी, उसके चलते फरियादियों की बढ़ती कतार के तौर पर सामने है। अदालतों में न्यायधीशों की कमी तो है ही पुलिस का कम संख्याबल दूसरी बड़ी वजह है। कानून मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार देश की जिला अदालतों में अप्रैल 2018 तक कुल लंबित मामलों की संख्या 26920153 है। इनमें 18774494 मामले अपराधिक मामले हैं। जो सुनवाई के लिए लंबित हैं।

इन लंबित मामलों में 2773017 मामले ऐसे हैं जो महिलाओं द्वारा दायर किये गए। इनमें से महिलाओं द्वारा दर्ज और दायर कराये गए अपराधिक मामलों की संख्या 139787 है, जोकि लंबित हैं।

देश की जिला अदालतों में लंबित इन मामलों में 2265226 मामले दस साल या इससे ज्यादा पुराने हैं। अपराधिक मामले जोकि दस साल इससे ज्यादा वक्त से लंबित चले आ रहे हैं उनकी संख्या 16717444 है। जबकि पांच से दस साल की अवधि से लंबित चल रहे मामलों की संख्या 4305247 है और इनमें अपराधिक मामलों की संख्या 3091790 है। दो से पांच बरस से लंबित मामलों का कुल आंकड़ा 7707861 है तो इनमें इस अवधि के 5216218 आपराधिक मामले शुमार हैं। ये आकंड़े जिला अदालतों के हैं। यदि इनमें राज्यों की हाईकोर्ट में लंबित मामले भ्भी जोड़ लिये जाएं तो ये आंकड़ा और ज्यादा होगा। ये देश में न्याय की उम्मीद की वो तस्वीर है जो बाखूबी ये बयां करती है कि फरियादियों की लाईन कितनी लंबी है। ऐसे में कानून के अनुसार दोषियों को सजा दिये जाने की हमारी रफतार इतनी धीमी क्यों है, ये प्रश्न स्वभाविक है। इसकी बड़ी वजह अदालतों में जजों की कमी है। अदालतों में मामलों के अनुपात में न्यायधीशों की नियुक्ति महज सपना है, मंजूरशुदा पदों तक को हम समय पर नहीं भर पा रहे हैं, जिसका नतीजो मामलों पर बरसों सुनवाई न हो पाने के तौर पर हमारे सामने है। इससे निपटे बिना कानून बना देने भर से क्या फरियादियों -पीडि़तों को न्याय मिल सकेगा? ये प्रश्न एक बार फिर बहस में है।

कठुआ और उन्नाव की घटनाओं के बाद बने जन-दबाव की बदौलत पास्को एक्ट में संशोधन किया गया है। इसे लागू करने के लिए अध्यादेश लाया गया, ताकि इस संशोधन को फौरी तौर पर बतौर कानून लागू किया जा सके। पास्को एक्ट में संशोधन के बाद अब नये प्रावधान के तहत सजा को कड़ा किया गया है।  अध्यादेश के अनुसार, 16 साल से कम उम्र की नाबालिग युवती से रेप किये जाने के मामले में न्यूनतम सजा को दस बरस से बढ़ा कर बीस साल कर दिया गया है। जबकि बलात्कार यदि 12 साल से कम उम्र की नाबालिगा से होता है तो कम से कम बीस साल का कारावास या आजीवन कारावास या फिर फांसी तक की सजा का प्रावधान किया गया है। नये संशोधन के बाद अब 16 साल से कम उम्र की लड़कियों से बलात्कार के आरोपियों को अग्रिम जमानत नहीं मिल सकेगी, ये प्रावधान भी किया गया है। इसके साथ साथ महिला से बलात्कार के दोषी की न्यूनतम सजा को सात से बढ़ा कर 10 साल कर दिया गया है। इसे उम्र कैद तक बढ़ाया जा सकेगा।

कुठआ और उन्नाव की घटनाओं के सुर्खियों में आने के बाद अपनी प्रतिक्रिया में केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने कहा था, कि सरकार पॉक्सो एक्ट में संशोधन पर विचार कर रहे हैं। इस तरह के जुर्म में मौत की सजा पर विचार किया जा रहा है। गलत करने वालों में कानून का डर होना चाहिए। कानून का डर होगा तो मामलों में कमी आएगी। उनका से कहना सही है, लेकिन कानून को लागू करने और उसके लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए जिन ढांचागत बुनियादी चीजों की जरूरत है, क्या हम उसकी अनदेखी नहीं कर रहे हैं। यदि न्यायालयों में बरसों-बरस मामले लंबित पड़े रहेंगे तो समाज में इसका संदेश क्या जाएगा?

निर्भय प्रकरण के बाद भी काफी शोर उठा और बलात्कारियों के खिलाफ कानून को कड़ा भी किया। हालात देखें तो पता चलता है कि कानून बनाने भर से किसी बदलाव की उम्मीद करना सही नहीं है। पुलिस विभाग और न्यायप्रणाली कई तरह की दिक्कतों से जूझ रहे हैं। इसमें बरसों से बड़ी संख्या में खाली पदों का न भरना तो एक वजह है ही, वहीं जनसंख्या के लिहाज से इनकी उपलब्धता का अनुपात दूसरा बड़ा कारण है जिसमें संतुलन की जरूरत है।

बलात्कार, छेड़छाड़ के मामले पुलिस तक पहुंचने का प्रतिशत असल हालात के मुकाबले हमेशा से कम ही रहा है, लेकिन इसमें अब बदलाव आया है। निर्भय प्रकरण के बाद महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों के खिलाफ शिकायते दर्ज करने को लेकर 60 प्रतिशत वृद्धि हुई है, लेकिन शिकायत के बाद की कार्रवाई में कोई तेजी नहीं आ पाई है। नेशनल क्राईम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2016 में अदालतों में महिलाओं के प्रति होने वाले यौन अपराध के 133000 मामले लंबित हैं। जबकि 2012 में लंबित मामलों का आंकड़ा 100000 था। दर्ज मामलों के लिहाज से 82 प्रतिशत मामलों पर सुनवाई लंबित है। जिन मामलों पर सुनवाई हुई उनमें से केवल 25 प्रतिशत को ही सजा हुई, बाकि 75 प्रतिशत विभन्न कारणों से अदालत से छूट गए। वर्ष 2012 से लेकर 2016 के बीच दर्ज बलात्कार के 33 प्रतिशत मामलों में अभी तक पुलिस-जांच जारी रहना चौंकाता है, लेकिन ऐसा है। पास्कों एक्ट 2012 में पारित किया गया। इसमें पुलिस को अपनी जांच एक महीने में पुरी करने और अदालत द्वारा एक वर्ष के भीतर मामले में सुनवाई का प्रावधान किया गया था, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया।

पुलिस की निष्पक्षता को लेकर उठने वाले संदेह की जवाब में एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी की ये टिप्पणी थी कि पुलिस अधिकारी हो या कर्मचारी उसका तबादला, तरक्की और निलंबन जिनके हाथ में हो यदि दबाव वहां से डाला जाए तो जांच प्रभावित होगी ही। हमें पुलिस को ऐसे दबावों से मुक्त करने की हिम्मत दिखानी होगा। काबिले जिक्र ये भी है कि पुलिस रिफार्म में पुलिस अधिकारी-कर्मचारी को एक तय अवधि से पहले स्थानांतरण पर रोक का प्रावधान किया गया है, लेकिन इसे राज्यों ने अपनी सुविधानुसार लागू किया और उसमें कई संशोधन किये। लिहाजा पुलिस रिफार्म की कवायद का मकसद अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंचा। ऐसे में जब अदालतें जजों की कमी से जूझ रही हों, लाखों मामले सुनवाई के लिए बरसों से इंतजार में हों और पुलिस महकमे के पास पर्याप्त संसाधनों की कमी हो, महिलाओं के लिए थाने तो हों, लेकिन उनमें सुविधाएं न हों, मामले दर्ज तो हों लेकिन जांच का नतीजा अदालत में 75 प्रतिशत लोगों के छूट जाने के तौर पर सामने आए तो महज कानूनी संशोधन से या कड़ा कानून बना देने भर से किसी नतीजे की उम्मीद कैसे की जा सकती है?

-उच्च न्यायालय की स्थिति

पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में 85 पदों के मुकाबले 35 पद खाली हैं। जबकि शिमला हाईकोर्ट में 13 के मुकाबले 5 पद खाली हैं। दिल्ली में 23 और इलाहाबाद हाईकोर्ट में 60 पद खाली चले आ रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट में 7 पदों पर लंबे अर्से से नियुक्ति का इंतजार खत्म नहीं हो पा रहा है। बता दें कि जजों की नियुक्ति का मामला न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच पत्राचार में उलझा हुआ है। लोकसभा में एक प्रश्न के उत्तर में इस संबंध में हो रहे पत्राचार का उल्लेख भी किया गया है।

(आंकड़े कानून मंत्रालय के सौजन्य से। एक अप्रैल 2018 की स्थिति अनुसार हैं)

-हरियाणा-

हरियाणा की जिला एवं अधीनस्थ अदालतों में कुल लंबित मामलों की संख्या 659331 है। इनमें से 396294 मामले अपराधिक मामले हैं। महिलाओं द्वारा दायर किये गए लंबित चले आ रहे अपराधिक मामलों की कुल संख्या 32404 है। करीब 7000 मामले ऐसे हैं जो पांच से दस साल से लंबित चले आ रहे हैं।

-हिमाचल प्रदेश-

हिमाचल प्रदेश की जिला एवं स्थानीय अदालतों में कुल 234814 मामले लंबित हैं। इनमें से 11639 मामले ऐसे हैं जो महिलाओं द्वारा दायर किये गए। कुल लंबित मामलों में 12 6187 मामले अपराधिक मामले हैं। इनमें 860 मामले ऐसे हैं जो दस साल से ज्यादा समय से लंबित हैं, जबकि पांच से दस साल की अवधि के बीच से लंबे चली आ रहे मामलों की संख्या 24202 है।

-पंजाब-

पंजाब राज्य की जिला एवं स्थानीय अदालतों में कुल 598008 मामले लंबित हैं। इनमें 349203 मामले क्राईम से जुड़े मामले हैं। पंजाब की अदालतों में महिलाओं द्वारा दायर  38893 अपराधिक मामले लंबित हैं। पांच से दस वर्ष और दस वर्ष से ज्यादा से लंबित चले आ रहे अपराधिक मामलों की संख्या करीब आठ हजार है।

-चंडीगढ़-

चंडीगढ़ यूटी में कुल लंबित मामलों की संख्या 40111 है। इनमें से 23691 मामले अराधिक मामले हैं। जबकिमहिलाओं द्वारा दायर किये गए लंबित अपराधिक मामलों की संख्या 5338 है।

-राज्यों की स्थानीय एवं जिला अदालतों में रिक्तियां-

हरियाणा राज्य में कुल 149 जजों के पद रिक्त पड़े हैं। वहीं हिमाचल राज्य में 11 तो पंजाब में 138 पद रिक्त पड़े हैं। बिहार में 835, गुजरात में 375, उत्तर प्रदेश में 1348, उतराखंड में 60, राजस्थान में 103, दिल्ली में 317 पद स्थानीय अदालतों में रिक्त चले आ रहे हैं। देश भर में सभी जिलों में जिला एवं अधीनस्थ न्यायालयों में कुल 5925 पद रिक्त हैं।

– (आंकड़े-विधि एवं न्याय मंत्रालय द्वारा लोकसभा में एक प्रश्न के उत्तर में 7 फरवरी को दी गई जानकारी अनुसार)

सुप्रीम कोर्ट ने सभी हाइकोर्ट से कहा है कि पॉस्को एक्ट के तहत लंबित मामलों की सूची सौंपें। अप्रैल में एक याचिका पर सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय ने ये निर्देश जारी किये। याचिकाकर्ता ने अदालत को बताया कि वर्ष 2006 तक के जो आंकड़े एनसीआरबी ने उपलब्ध कराये, उनके मुताबिक अदालतों में 89 प्रतिशत मामले सुनवाई के लिए लंबित चले आ रहे हैं। 2017 के आंकड़े एनसीआरबी ने उपलब्ध नहीं कराये हैं, लेकिन ये आंकड़ा अब 90 फीसदी को पार कर चुका होगा। -एक लाख मामलों में से 11000 ही निपटे-

एनसीआरबी के मुताबिक पॉस्को एक्ट के तहत दर्ज 101326 मामलों में 11 हज़ार का ही निपटारा हुआ है. 90205 मामले लंबित ही हैं। गौरतल्ब है कि अदालत में अभी इस मामले पर सुनवाई जारी है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट ‘भारत में अपराध-2016’

(यह रिपोर्ट गृह मंत्री राजनाथ सिंह द्वारा 30 नवंबर, 2017 को जारी की गई)

पहली बार 19 मेट्रोपोलिटन शहरों ( जिनकी संख्या 2 लाख से अधिक की थी) के लिए भी ‘हिंसक अपराधों’, महिलाओं के विरुद्ध अपराधों’,‘बच्चों के विरुद्ध अपराधों’, ‘जुवेनाइल अपराधों’, ‘एस/एसटी के विरुद्ध अपराधों’, ‘साइबर अपराधों’, ‘वरिष्ठ नागरिकों के विरुद्ध अपराधों’ और पुलिस और न्यायालय द्वारा निस्तारित किए गए मामलों पर अध्यायों को भ्भी इस रिपोर्ट में शामिल किया गया। इसके अलावा, ‘खोये व्यक्तियों और बच्चों’ पर एक नया अध्याय शामिल किया गया हैं। इसके साथ ही पहली बार केंद्रीय सशस्त्र बलों/केंद्रीय पुलिस बलों द्वारा जब्त किए गए हथियारों, आयुधों, ड्रग्स और मुद्राओं के आंकड़े भी रिपोर्ट में शामिल किए गए हैं।

1.विगत तीन वर्षों से देश में हत्या के मामलों में गिरावट आई है।

2. वर्ष 2015-16 में हत्या के मामलों में 5.2 प्रतिशत की कमी हुई।

3. हत्या के मामले वर्ष 2015 के 32,127 से घटकर वर्ष 2016 में 30,450 हो गए।

4. महिलाओं के विरुद्ध अपराध में वर्ष 2016 में (3,38,954) वर्ष 2014 (3,39,457) की तुलना में मामूली कमी हुई है जबकि वर्ष 2015 (3,29,243) की तुलना में मामूली वृद्धि हुई है।

5. इस रिपोर्ट के अनुसार राज्यों की दृष्टि से देश में कुल आईपीसी अपराध का 9.5 प्रतिशत हिस्सा उत्तर प्रदेश का है।

6. अपराध के सर्वाधिक मामले उत्तर प्रदेश में दर्ज किए गए।

7. इसके पश्चात मध्य प्रदेश (8.9 प्रतिशत) महाराष्ट्र (8.8 प्रतिशत) और केरल (8.7) रहा।

8. महानगरों में कुल आईपीसी अपराधों में अकेले दिल्ली में 38.8 प्रतिशत अपराध दर्ज हुए।

9. इसके पश्चात बंगलुरू (8.9 प्रतिशत) दूसरे और मुंबई (7.7 प्रतिशत) तीसरे स्थान पर रहा।

10. रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश में हत्या की घटनाएं सबसे ज्यादा हुईं।

11. यहां हत्या के 4,889 मामले सामने आए जो कुल मामलों का 16.1 प्रतिशत है।

12. इसके पश्चात हत्या की सबसे ज्यादा 2,581 (8.4 प्रतिशत) घटनाएं बिहार में दर्ज की की गईं।

13. वर्ष 2016 में महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के कुल मामलों में से 14.5 प्रतिशत (49,262 मामले) उत्तर प्रदेश में हुए।

14. इसके पश्चात 9.6 प्रतिशत (32,513) मामलों के साथ पश्चिम बंगाल दूसरे स्थान पर रहा।

15. वर्ष 2015 की तुलना में वर्ष 2016 में देश में बलात्कार की घटनाएं 12.4 प्रतिशत बढ़ गईं।

16. रिपोर्ट के अनुसार, बलात्कार के सर्वाधिक मामले मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में हुए।

17. ऐसी कुल घटनाओं में से 12.5 प्रतिशत मध्य प्रदेश, 12.4 प्रतिशत उत्तर प्रदेश में और 10.7 प्रतिशत मामले महाराष्ट्र में हुए।

-अध्यादेश-

मासूमों से बलात्कार मामले में सरकार अध्यादेश लाई है, ये आगामी सत्र तक प्रभावी रहेगा। तत्पश्चात इसे सदन पारित करेगा। फिलहाल ये कानून माना जाएगा। यदि डेढ़ महीने की अवधि में सदन सत्र नहीं बुलाया जाता तो अध्यादेश की अवधि पुन बढ़ानी होगी। क्योंकि जम्मू-काश्मीर को खास दर्जा हासिल है, लिहाजा अध्यादेश को जम्मूकाश्मीर में लागू कराने के लिए वहां की विधानसभा से इसे पारित कराना होगा। ये मंजूरी तकनीकी तौर पर जरूरी है।

-अध्यादेश के जरिये नये प्रावधान-

किसी महिला से यदि बलात्कार किया जाता है तो अब उसे सात की बजाय दस साल की कठोर सजा दि जाएगी। इसे आजीवन कारावास में भी बदला जा सकेगा।

. अब 16 साल की उम्र तक की लडक़ी से बलात्कार होता है तो दोषी को कम से कम बीस साल या फिर आजीवन जेल की सजा दी जाएगी। ये पहले दस वर्ष थी। यदि सामुहिक बलात्कार का मामला हो तो सभी को आजीवन करावास की सजा का प्रावधान किया गया है।

. पास्को के लिहाज से अध्यादेश के जरिये जो संशोधन कड़ी सजा के लिए लाए गए हैं उनमें 12 वर्ष तक की बच्ची से बलात्कार के आर ोपी को कम से कम बीस साल या आजीवन करावास या फांसी दिये जाने का प्रावधान किया गया है। सामुहिक बलात्कार के मामले में आजीवन करावास और फांसी का  प्रावधान सम्माहित किया गया है।

. पुलिस जांच दो माह में । मामले में सुनवाई  दो महीने में और इन पर अपील होने की स्थिति में छह महीने में उसका निपटान किये जाने का प्रावधान किया गया है। यानि मामला दर्ज होने के बाद दस महीने के अंदर मामले में अपील तक की प्रक्रिया को पूर्ण कर दोषी को सजा हो ये प्रस्ताव है।

. अध्यादेश में कहा गया है कि यदि रेप 16 या इससे कम आयु की लडक़ी के साथ होता है तो आरोपी को जमानत नहीं मिल सकेगी।

-सुप्रीम कोर्ट के निर्देश-

बाल यौन उत्पीडऩ मामलों को लेकर दायर एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने एक मई को देश के रा’यों में स्थित उच्च न्यायालयों, पुलिस महानिदेशकों को निर्देश जारी किये हैं। एक मई को जारी इन निर्देशों में कहा गया है कि सभी उच्च न्यायालय पास्को मामलों की निगरानी के लिए तीन जजों की एक निगरानी कमेटी का गठन करें। मामलों की सुनवाई विशेष अदालतों में की जाए। सुप्रीम कोर्ट ने ताजा निर्देश दिये हैं। निर्देशों में राज्यों के पुलिस महानिदेशकों से कहा गया है कि वे ऐसे मामलों के लिए स्पेशल टॉस्क फोर्स का गठन करें ताकि ऐसे मामलों की जांच जल्द हो सके और गवाहों का अदालत पहुंचना सुनिश्चित किया जा सके। राज्यों के उच्च  न्यायालयों से ये भी कहा गया है कि वे विशेष अदालतों ऐसे मामलों में स्थगन देने से बचें।