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दुल्हे को घोड़ी पर ही क्यों बैठाया जाता है घोड़े पर क्यों नहीं !

दुल्हे को घोड़ी पर

दुल्हे को घोड़ी पर – जैसे हर धर्म के अपने-अपने रीति-रिवाज़ होते है वैसे ही हिंदू धर्म के भी अपने खास रिवाज़ होते है जो लोगों द्वारा कई सालों से निभाए जाते रहे है.

कुछ ऐसा ही रिवाज़ शादियों में भी निभाया जाता है जिसमें मेहंदी, संगीत, हल्दी, फेरे जैसे कई रिवाज़ निभाए जाते है वैसे ही दुल्हे को घोड़ी पर बैठाने का रिवाज़ भी है. लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि दुल्हे को घोड़ी पर ही क्यों बैठाया जाता है घोड़े पर क्यों नहीं?

अगर आप नहीं जानते है तो आज हम आपको बताने जा रहे है कि आखिर क्यों दुल्हे को घोड़ी पर ही बैठाया जाता है.

दुल्हे को घोड़ी पर

दरअसल काफी प्राचीन समय से ही हिंदू धर्म में शादी में दुल्हे को घोड़ी पर बैठाने का रिवाज़ निभाया जा रहा है. मान्यता के अनुसार प्राचीन समय में शादी के वक्त लड़ाईयां लड़ी जाती थी, इस लड़ाई में दुल्हे को दुल्हन के लिए अपनी वीरता साबित करनी होती थी जिसमें उसे घोड़े पर बैठकर लड़ना होता था.

हमारे प्राचीन धर्म ग्रंथों में भी इस तरह के कई प्रसंग पढ़ने को मिले है जब दुल्हे को दुल्हन हासिल करने के लिए रणभूमि में युद्ध करना पड़ा था.

दुल्हे को घोड़ी पर

ऐसा ही भगवान राम और सीता के विवाह के दौरान भी हुआ था जब स्वयंवर में सीता श्रीराम को वरमाला डालने जा ही रही थी तब वहां मौजूद सभी प्रतिभागी राजाओं ने अपनी-अपनी तलवार निकाल ली और सीधे श्रीराम को चुनौती दे दी. लेकिन तभी मौके पर परशुराम के आने से सभी लोगों को ज्ञात हुआ कि श्रीराम से युद्ध करना मतलब मौत को बुलावा देना है, इस तरह श्रीराम और सीता के विवाह के समय युद्ध टल गया था. कुछ ऐसा ही भगवान श्रीकृष्ण और रुख्मणि के विवाह के समय भी हुआ था जब श्रीकृष्ण को युद्ध करना पड़ा था.

दुल्हे को घोड़ी पर

इतिहास में ऐसे कई प्रसंग देखने को मिले है जब विवाह के लिए युद्ध हुए है.

वहीं प्राचीन काल में कई युद्ध और लड़ाईयों में राजाओं ने घोड़ों पर चड़कर ही जीत हासिल की थी इसलिए भी घोड़ों का चलन प्राचीन समय में रहा है. घोड़े को जहाँ शौर्य और वीरता का प्रतीक माना जाता है वहीं घोड़ी को उत्पत्ति का प्रतीक माना जाता है. हालाँकि आधुनिक समय में प्राचीनकाल की स्वयंवर और युद्ध की परम्परा बंद हो गई इसलिए रिवाजों में घोड़ों की जगह घोड़ी का उपयोग होने लगा और ये एक तरह से परम्परा बन गई और घोड़ी को शगुन के तौर पर भी माना जाने लगा.

दुल्हे को घोड़ी पर

इस तरह आज के समय में भी दुल्हे को घोड़ी पर बैठाने की परंपरा चली आ रही है.

इसके अलावा एक अन्य मान्यता के अनुसार घोड़ी को चतुर, बुद्धिमान और दक्ष माना जाता है और उसे सिर्फ स्वस्थ और योग्य व्यक्ति ही नियंत्रित कर सकता है इसलिए ये भी माना जाता है कि घोड़ी को नियंत्रित करने वाला व्यक्ति परिवार और पत्नी की भी जिम्मेदारी अच्छे से निभा सकता है. इसलिए हमेशा से ही शादियों में दुल्हे घोड़ी पर बैठकर ही दुल्हन ब्याहनें जाते रहे है और आगे भी जाते रहेंगे.