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इस एक शख्स की बदौलत भारत को 1915 में ही मिल गई होती आज़ादी!

यतींद्र नाथ मुखर्जी

आज हम जिस आज़ादी पर गुमान करते है उसके लिए हमारे देश के कई क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति दी है.

और उन्ही क्रांतिकारियों में से आज हम आपके सामने ऐसे ही एक महान क्रांतिकारी की वीरगाथा लेकर आये है जो आज़ादी का इतिहास लिखे जाने के वक्त नाइंसाफी का शिकार हुआ है और उसका बलिदान उन सुनहरे अक्षरों में नहीं लिखा गया, जिसके वे असल हक़दार थे.

जी हाँ अगर इस क्रांतिकारी का प्लान कामयाब हो गया होता तो हमें 1915 में ही आज़ादी मिल गई होती.

यतींद्र नाथ मुखर्जी

हम बात कर रहे है महान क्रांतिकारी यतींद्र नाथ मुखर्जी की, जिन्हें ‘बाघा जतिन’ के नाम से भी जाना जाता है. वे उस दौर के हीरो हुआ करते थे, जब लोग अंग्रेजों के डर से अपने घरों में सहमे हुए रहते थे उस वक्त ये बंदा जहाँ भी अंग्रेजों को देखता उन्हें पीट देता था. कहा जाता है एक बार तो उन्होंने अकेले ही आठ अंग्रेजों को पीट दिया था.

यतींद्र नाथ मुखर्जी शुरू से ही क्रांतिकारी स्वभाव के थे उनका बलिष्ठ शरीर उन्हें और ताकतवर बनाता था.

जब वे कॉलेज में पहुंचे तो वे स्वामी विवेकानंद के संपर्क में आये, स्वामीजी ने उन्हें अम्बु गुहा के देसी जिम में भेजा ताकि वे कुश्ती के दाव पेंच सीख सके. देश की अपनी खुद की नेशनल आर्मी का सबसे पहला विचार भी बाघा जतिन का ही था.

एक बार गाँव में तेंदुए ने आतंक मचा दिया, तब यतींद्र नाथ मुखर्जी ने अपनी बहादुरी से उसे मार डाला तब से लोग उन्हें बाघा जतिन के नाम से पुँकारने लगे. साल 1900 में क्रांतिकारियों के सबसे बड़े संगठन अनुशीलन समिति की स्थापना हुई, इसकी स्थापना में यतींद्र नाथ मुखर्जी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इस बीच उन्होंने कई जगहों का दौरा भी किया और अंग्रेजों को पीटने के उनके चर्चे भी अब आम हो गए हर दूसरे-तीसरे दिन वे किसी ना किसी अंग्रेज की पीट दिया करते थे. जब एक बार जतिन से पूछा गया कि तुम कितने लोगों को एक साथ पीट सकते हो तब उन्होंने कहा ‘ईमानदार हो तो एक भी नहीं और बेईमानों की गिनती नहीं’. इसी दौरान बाघा जतिन ने कई नामों से अलग-अलग संस्थाएं शुरू की जो कई तरह के सोशल काम भी कर रही थी.

इसी दौरान वे कई क्रांतिकारी गतिविधियों में भी रहे. इसी बीच 1915 में जर्मनी के राजा भारत भ्रमण पर आये हुए थे. लोगों से और अंग्रेजों से छिपकर यतींद्र नाथ मुखर्जी ने जर्मनी के राजा से मुलाकात की. उन्होंने हिंदुस्तान की आज़ादी के लिए हथियार देने की बात कही, और तय हुआ कि जर्मनी से हथियार लेकर अंग्रेजों के खिलाफ इस्तेमाल करके भारत को आजाद करवाना. लेकिन ये बात जासूस इमेनुअल विक्टर वोस्का को पता चल गई और उसने ये खबर अमेरिका को दे दी, बाद में अमेरिका ने ये बात अंग्रेजी हुकूमत को बता दी. जिस वजह से उड़ीसा का पूरा समुद्र तट सील कर दिया गया ताकि हथियार ना लाये जा सके.

इसी बीच अंग्रेज यतींद्र नाथ मुखर्जी को ढूंढने लगी. और 9 सितंबर 1915 को एक अधिकारी ने गाँव वालों की मदद से उन्हें पकड़ने की कोशिश की तो उन्होंने उस अधिकारी को मार गिराया. लेकिन तभी ख़बर पाकर और भी अंग्रेजी अफसर आ गए और दोनों तरफ से गोलियां चलने लगी. बाघा के साथी चित्तप्रिय शहीद हो गए, काफी देर तक वे अंग्रेजो की गोलियों का सामना करते रहे लेकिन अंत में उनका शरीर गोलियों से पूरी तरह छलनी हो गया और वे जमीन पर गिर पड़े. और इस तरह एक महान क्रांतिकारी शहीद हो गया.

लेकिन यतींद्र नाथ मुखर्जी की शहादत को इतिहास में वो जगह नही मिली है जो मिलनी चाहिए थी. आज भी लोग उनको कम ही जानते है. आज हमनें इस महान क्रांतिकारी को भूला दिया है.