नवरात्री और गरबा की जब भी बात होती तो हम सब के ज़ेहन में रंग बिरंगे घाघरें या चनिया चोली पहनी हुई सुंदर लड़किया और गुजराती रीतिरिवाज़ के पारम्परिक परिधान केडिया पहन कर युवक दोनों हाथ में डंडिया लिए गरबा खेलते नज़र आते हैं.
नवरात्री का यह पर्व देवी माँ की पूजा और उपासना करने के लिए मनाया जाता हैं.
माँ अम्बे के भक्त इस पुरे नौ दिन माता की पूजा कर के हर शाम उन की आरती के बाद एक बड़े मैदान में माता के नाम का दीप और ज्वारा रखकर उसके चारो-ओर एक घेरे में घूमकर नृत्य करते हैं.
लेकिन क्या आप जानते हैं कि नवरात्री की पूरी नौ रात गरबा क्यों खेला जाता हैं?
आईएं आज हम बताते हैं आप को नवरात्री में गरबा खेलने की वजह.
दरअसल गरबा संस्कृत के शब्द गर्भ से निकला हैं. नवरात्री के इस पर्व में यह पूरा नृत्य मिटटी से बने एक गर्भ के चारों-ओर किया जाता हैं. मिटटी से बने इस गर्भ का अर्थ असल में संसार के मूल यानि प्रसव, जन्म या उत्पत्ति से हैं.
मैदान में रखे जाने वाले इस गर्भ के अंदर माता के नाम का एक दीप भी रखा जाता हैं जिसे गर्भ दीप भी कहा जाता हैं.
गरबा के इस नृत्य में सभी लोग माता के गर्भ के चारो-ओर घूमते हैं.
इस बात को प्रतीकात्मक रूप में यह कहा जाता हैं कि इस संसार की उत्पत्ति, हम सब की उत्पत्ति, इस गर्भ से ही हुई जिसे हम माता अम्बे कहते हैं और हम सभी का पूरा जीवन इन्ही के चारो ओर घुमता हैं. हम जन्म लेते हैं अपना जीवन जीते हैं फिर मृत्यु को प्राप्त करते हैं.
इस मोक्ष के बाद जीवन का यही चक्र फिर से शुरू होता हैं और यही जीवन चक्र कहलाता हैं.
जिस तरह से हमारा जीवन माँ अम्बे के चारोंओर घूमता हैं, उसी तरह गरबे का यह खेल भी हमारे जीवनचक्र का एक प्रतीक हैं जो निरंतर चलता रहता हैं कभी रुकता नहीं और इस जीवन की धुरी, इसका पूरा केंद्र माँ के नाम का वह गर्भ होता हैं.
हिन्दू धर्म के अनुसार जीवनचक्र की यह विचारधारा हमारे धर्म में इतने सरल और सहज तरीके से बताने की कोशिश की गयी हैं कि नवरात्री के इस उत्सव के द्वारा हम सब के जीवन यह पूरी तरह से उतर आती हैं और हम आनंदमयी होकर उत्सव में शामिल होकर जीवन का इतना गूढ़ रहस्य आसानी से समझ जाते हैं.
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