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फादर आफ आर्म्ड स्ट्रगल – सबसे पहले इन्हों ने उठाये थे अंग्रेजों के खिलाफ हथियार!

वासुदेव बलवंत फडके

भारत में जब 1857 की क्रान्ति में अंग्रेज भारतीयों पर जुल्म कर रहे थे तो उस समय इस बालक की उम्र मात्र 12 साल थी.

लेकिन यह बालक देख रहा था कि भारतीय लोग अंग्रेजों से डंडों के दम पर ही लड़ रहे हैं और अंग्रेज गोलियों से भारतीयों को मार रहे हैं. तभी इस बालक को लगा था कि अंग्रेजों से देश की रक्षा के लिए हमें भी उनके जैसे हथियारों की जरूरत है.

इस क्रांतिकारी का नाम वासुदेव बलवंत फडके हैं जिसने भारत देश की आजादी के लिए सबसे पहले हथियारों का साथ लिया था.

इसलिए शायद वासुदेव बलवंत फडके को ‘फादर आफ आर्म्ड स्ट्रगल’ बोला जाता है.

इस आदि क्रांतिकारी के नाम भारत का सबसे प्रमुख आन्दोलन भी है.

इस आंदोलन का कोई नाम तो नहीं है किन्तु वासुदेव बलवंत फडके ने छोटी जातियों को जोड़कर, अंग्रेजों से लोहा लिया था. जब छोटी जाति के लोगों ने वासुदेव बलवंत फडके का साथ दिया तो इससे समाज की इन जातियों के लोगों का गौरव भी बढ़ा था.

लेकिन बड़े दुर्भाग्य की बात है कि आज का भारत ‘फादर आफ आर्म्ड स्ट्रगल’ वासुदेव बलवंत फडके के संघर्ष को जानता ही नहीं है. तो इसलिए आज हम आपको इस महान और वीर क्रांतिकारी के बारें में बताने वाले हैं-

अंग्रेज की वजह से माँ के अंतिम दर्शन नहीं कर पाए थे वासुदेव बलवंत फडके –

यह बात उन दिनों की है जब सन 1871 में वासुदेव जी मुंबई में अंग्रेज की नौकरी कर रहे थे. एक दिन शाम को इनको गाँव से ख़त मिलता है कि तुम्हारी माँ की तबियत काफी खराब है इसलिए जल्द से जल्द तुम गाँव आ जाओ. वासुदेव जी यह ख़त लेकर अंग्रेज अफसर के पास छुट्टी लेने जाते हैं. किन्तु अंग्रेज इनका अपमान करता है और माँ को अपशब्द बोलकर, इनको छुट्टी नहीं देता है.

किन्तु जिद्दी वासुदेव जी बिना बोले ही अगले दिन गाँव चले जाते हैं और गाँव में जाकर देखते हैं कि उनकी माता का निधन हो चुका है. इस बात से दुखी वासुदेव जी अंग्रेज द्वारा किया अपमान भी नहीं भूल पाते हैं और उसी दिन अंग्रेजों से बदला लेने की ठान लेते हैं.

जब समाज ने लड़ने से मना कर दिया था –

अंग्रेजों ने जिस तरह से 1857 की क्रांति में भारतीय लोगों को सरेआम फांसी पर लटकाया था इसका भय समाज में व्याप्त था. भारत के लोगों को लगता था कि जैसे अंग्रेजों से लड़ना मुश्किल है. इसी बात से डरकर कोई भी व्यक्ति वासुदेव बलवंत फडके का साथ नहीं दे रहा था. वासुदेव जी अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई शुरू करना चाहते थे किन्तु समाज से लोग इनके साथ नहीं आ रहे थे.

तब इन्होनें सोचा था कि भगवान राम ने भी वानरों की सेना बनाई थी और मुझे भी अब वनवासी लोगों की सेना बनानी होगी. तब इन्होनें कोली, भील और धांगड जैसी जातियों की सेना बनाई और पहले तो इन्हीं के देशी हथियारों से अंग्रेजों पर हमला करना शुरू कर दिया था.

पुणे को करा लिया था आजाद –

इनकी कुछ 300 लोगों की सेना महाराष्ट्र के सात जिलों में अंग्रेजों से जबरदस्त तरीके से लड़ रही थी. अंग्रेजों को मारकर उनके ही हथियारों से उनको मारना उनका मुख्य और रोचक काम बन गया था. यहाँ तक कि कुछ लोग बोलते हैं कि वासुदेव बलवंत फडके ने तो देशी बारूद से भी अंग्रेजों को धूल में मिला दिया था. इसी बीच अंग्रेजों से कुछ लड़ाइयों में इनके साथी भी मर रहे थे और इस लिहाज से बलवंत जी कमजोर होते जा रहे थे.

वासुदेव बलवंत फडके को जिन्दा या मुर्दा पकड़ने पर सन 1879 में कुछ 50 हजार का इनाम रखा गया था. इसी से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि वासुदेव बलवंत फडके से अंग्रेज कितना घबरा गये थे. कुछ दिनों के लिए इन्होंने पुणे को अंग्रेजों से आजाद करा दिया था. यह इनकी सबसे बड़ी कामयाबी मानी जाती है.

इसी बीच कुछ अपने लोगों की मुखबरी से वह पकड़े गये थे और 31 अगस्त 1879 को इनको आजीवन कारावास की सजा सुनाई जाती है. किन्तु कहते हैं कि वासुदेव बलवंत फडके जेल तोड़कर भी एक बार भाग गये थे. इसलिए इसके बाद अंग्रेजों की कठोर यातनाओं के कारण सन 1883 में इनकी मौत हो जाती है.

वासुदेव बलवंत फडके की अधूरी लड़ाई को ही बाद में कई गर्म दल के क्रांतिकारियों ने आगे बढ़ाया था.

लेकिन दुःख इस बात का है कि इस वीर योद्धा के संघर्ष को भारत आज भी सही से प्रोत्साहित नहीं कर पाया है.