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क्या साहित्य अकादमी पुरूस्कार लौटाना विरोध है या एक सोची समझी साज़िश?

Sahitya_Akademi

मुन्नवर राणा ने भी अपना साहित्य अकादमी पुरूस्कार लौटा दिया.

उनको मिलकर अब तक साहित्य अकादमी पुरूस्कार लौटाने वाले लेखकों की संख्या 25 से ऊपर हो गयी है.

किसी भी देश के साहित्यकार अगर पुरूस्कार लौटाने लगे तो नि: संदेह ही मसला बहुत बड़ा होगा.

अगर पुरूस्कार लौटाने वालों की मानें तो उनके अनुसार उनके इस विरोध का कारण ये है कि अब देश का माहौल बिगड़ रहा है. इन लेखकों के मुताबिक पिछले सवा साल में हालत ऐसे हो गए है कि सांस लेना भी दूभर है. इसका सीधा सीधा मतलब ये है कि केंद्र में जब से मोदी सरकार आई है तब से ही उनकी हालत बुरी हुई है.

इस बात का एकतरफ़ा पक्ष तो हम सब रोज़ ही अखबार, समाचार चैनल, यहाँ तक की सोशल मीडिया पर भी देख रहे है आइये आज इन सबके पीछे जो दूसरा पक्ष भी हो सकता है उसके बारे में बात करते है.

2014 के लोकसभा चुनाव तो आप सबको याद होंगे.

किस प्रकार मोदी समर्थकों ने हर जगह एक माहौल तैयार किया था. ठीक उसी प्रकार मोदी विरोधियों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी.

जब नतीजे आये तो समर्थक और विरोधी दोनों को ही भरोसा नहीं हुआ. ऐसी जीत की उम्मीद किसी को नहीं थी.

अब ज़रा चुनाव के बाद की घटनाओं पर नजर डालते है. 

मोदी के सूट की झूठी कीमत पर बवाल से लेकर ये ताज़ातरीन पुरूस्कार लौटाने का ढोंग. जैसा कि सभी जानते है कि बीजेपी के समर्थक शहरी और पढ़े लिखे वर्ग में ज्यादा थे तो इस बार उनके विरोधी इस खास वर्ग को एक खास तरीके से सरकार का विरोधी बनाने की कोशिश कर रहे है.  आज के हालात देखकर ये बात सही भी लगती है.

पुरूस्कार लौटना विरोध का एक तरीका था पर सिर्फ एक आध घटना पर दशकों से सोया विरोध जाग उठा. बुरी से बुरी घटनाओं के बाद भी जिनकी ना कलम चली ना कभी पुरूस्कार लौटाया वो आज इतने मुखर हो गए.

एक बात और गौर करेंगे तो ये कुछ खास लोग वो है जो समय के साथ नेपथ्य में चले गए थे और लोगों द्वारा भुला दिए गए थे.

लेकिन ये उनके लिए सुनहरा मौका बनकर आया.

इन सब साहित्यकारों पर भरोसा तब किया जाता जब ये अपनी कलम को और भी धारदार बनाकर तल्ख़ भाषा में विरोध कर अपनी बात लोगों तक पहुंचाते. तमगो की भारत में क्या कीमत है ये सब जानते है.

गाहे बगाहे खिलाडी से लेकर साहित्यकार की तमगे बेचने की खबरे मिलती रहती है. सम्मान लौटना ही था तो बाकायदा तमगा और रकम भी लौटा देते.

इक छोटी सी बात और दादरी के ठीक बाद जब मंगलोर में गायों की गैरकानूनी तस्करी रोकने वाले की बीच बाज़ार हत्या हुई तो ना इनमें से कोई एक साहित्यकार बोला और ना ही सोशल मीडिया की तथाकथित बुद्धिजीवियों की फौज़.

बुद्धिजीवी भी कैसे जो खुद पांच छ: अंकों वाली तनख्वाह लेते है देश विदेश के बड़े से बड़े कॉर्पोरेट हाउस की नौकरी बजाकर और सोशल मीडिया पर क्रांति का झूठा ढोल पीटते है.

ये वो कुंठित लोग है जो अब तक हार पचा नहीं पाए है और किसी भी स्तर पर जाकर नुक्सान पहुँचाना चाहते है. ये किसी की मदद नहीं करते, ना ही साम्प्रदायिक सौहार्द की बात करते है ये भी उन कट्टरपंथी की तरह ही घृणा का व्यापार करते है. जो घटना आसानी से शांत हो जाये उसके बारे में भी चीखकर चिल्लाकर मासूम और भोले लोगों को लड़ा देते है और सवेरे चले जाते है तैयार होकर अपने दफ्तर.

अगर धर्मांध कट्टरपंथी देश के लिए खतरा है तो ये स्वार्थी लोग भी उतना ही बड़ा खतरा है. अब ज़रा आप ही बताइए कौन नेता इतना मुर्ख  होता है जो प्रधानमंत्री बनने के बाद से हर महीने अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने वाली हरकतें करे. खासकर वो नेता जिसके बारे में पहले यही लोग कहते थे की बहुत घाघ और तेज़ है तो अब अचानक वो ऐसे मूर्ख कैसे हो सकता है.

हर सिक्के के दो पहलु होते है एक वो पहलु जो हमें इतना दिखाया और सुनाया जाता है कि हम उसे सच मान ले और एक वो पहलु जो दिखाया और सुनाया नहीं जाता पर सच वही होता है. तो किसी भी बात पर भरोसा करने से पहले अपने ज्ञान, तर्कशक्ति का उपयोग ज़रूर करें.

ऐसा ज़रूरी नहीं की जो बुद्धिजीवी बने वो हमेशा सही और निष्पक्ष हो..

कभी कभी इन लोगों का एजेंडा ही सबसे खतरनाक और धीमा ज़हर होता है.