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राजीव गाँधी हत्याकांड पर सुप्रीमकोर्ट ने नही सुनी केद्र की

21 मई 1991 में तमिलनाडु के श्रीपोरुन्म्बदुर में एक आत्मघाती हमले में उस वक़्त के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने अपनी जान गँवा दी थी.

हादसे में हुई क्रूरता इतनी भयानक थी कि प्रधानमंत्री को उनके जूतों से पहचाना गया था.

इसी के चलते अपराधियों को मौत की सज़ा सुनाई थी. लेकिन क्षमा अर्जी के चलते अपराधियों की फांसी उम्र कैद में तब्दील कर दी गयी थी. केंद्र सरकार ने इस बात का विरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करते हुए मौत की सज़ा को बरक़रार रखने की बात कही थी लेकिन कोर्ट ने सरकार की इस बात को खारिज कर दिया.

इस हमले के लिए दोषी पाए गए हत्यारें संथन, मुरुगुन,पेरारीवलन और उम्रकैद की सज़ा नलिनी श्रीहरन, रॉबर्ट पायस, रविचंद्रन और राजकुमार की सज़ा के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की सज़ा की बात को नकारते हुए यह कहा कि उम्र कैद मौत की सज़ा से ज्यादा उपयुक्त हैं.

अपराधियों को फांसी लगने से उन्हें तुरंत मौत मिल जाती हैं और लोग भी उन्हें भूल जाते हैं लेकिन उम्रकैद से होने वाला दर्द उन्हें पूरी उम्र मिलता रहता हैं. अपराधी तभी समझ पता हैं कि पीड़ित और उसके परिवार पर क्या बीती होगी.

राजीव गाँधी के मामले की जांच कर रहे न्यायाधीशों के पैनल के चीफ जस्टिस ने कहा कि वह केंद्र की इस बात को इसलिए नहीं मान रही क्योंकि जब हम किसी की मौत की सज़ा को उम्र कैद में बदलते हैं तो इसे भी मौत होने तक कैद ही कहा जाता हैं और इसमें कोई रिहाई भी नहीं होनी चाहिए. उम्र कैद से दोषियों को पीड़ितों के दर्द का एहसास होता हैं. सज़ा मिलने के बाद अपनी पूरी ज़िन्दगी अपराधी जेल में बिताता हैं और तब उसे पीड़ितों के परिवार का दर्द समझ में आता हैं.

सुप्रीम कोर्ट की इस बात से एक सन्देश तो हम सभी को मिलता हैं कि मौत किसी भी समस्या का हल नहीं हो सकती.

अपराधी को उसके द्वारा किये अपराधों का अपराध बोध होना ज़रूरी हैं.

जिस तकलीफ से पीड़ित और पीड़ित के सम्बन्धी गुज़रे हैं उसे भी उस दर्द का एहसास होना चाहिए.

Sagar Shri Gupta

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Sagar Shri Gupta

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