भारत

विदेशी धन की भूमिका पर सवाल

इंटेलीजेंस ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार भारत के विकास में कुछ विदेशी धन से पोषित एनजीओ बाधा बन रहे हैं. इनमें ग्रीनपीस का नाम सबसे ऊपर है. ग्रीनपीस एक ऐसी वैश्विक स्तर पर कार्य करने वाली संस्था है जो पर्यावरण संरक्षण का कार्य करती है. इस संस्था के द्वारा कोयला तथा परमाणु बिजली परियोजनाओं का निरंतर विरोध किया जा रहा है. इस रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने ग्रीनपीस द्वारा विदेशी धन प्राप्त करने पर रोक लगा दी है.

तमाम देशों में एनजीओ ने मानव राहत के उल्लेखनीय कार्य किए हैं. रवांडा के नरसंहार के दौरान लगभग 200 एनजीओ द्वारा मौलिक जन सुविधाएं लोगों को मुहैया कराई गईं थीं. जो कि विदेशी धन से पोषित थे. अपने देश में विदेशी धन से शिक्षा और स्वास्थ्य मुहैया करवाने वाली तमाम संस्थाएं चल रही हैं. वहीं, दूसरी तरफ एनजीओ के आवरण के पीछे विदेशी धन का उपयोग देश की सुरक्षा में सेंध लगाने के लिए भी किया जा रहा है जैसे 26/ 11 मुंबई कांड को अंजाम देने के लिए विदेशी धन पहले भारत भेजा गया अथवा जाली नोटों को फैलाने के लिए विदेशी धन भेजा गया. इस प्रकार के कृत्य हमारे क्रिमिनल कानून के अंतर्गत प्रतिबंधित है. इन गतिविधियों का लक्ष्य विशेष राजनीतिक पार्टी नहीं, बल्कि संपूर्ण देश होता है. ऐसी गतिविधियों के लिए विदेशी धन का प्रवेश कतई नहीं होने देना चाहिए.

इस प्रकार का विदेशी धन का पहला स्तर निर्लिप्त दान का है जैसा कि रवांडा में देखा जाता है. इसे जारी रखने पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. वहीं, दूसरा स्तर देश के विरुद्ध आपराधिक गतिविधियों का है. इन पर सख्त प्रतिबंध होना चाहिए. इन दोनों छोरों के बीच एक विशाल धुंधला क्षेत्र है. इसमें पर्यावरण और राजनीतिक गतिविधियां आती हैं जैसे अमेरिका द्वारा वेनेजुएला की सत्तारूढ़ सरकार के विरोधियों को धन दिया जा रहा है अथवा नेताजी सुभाषचंद्र बोस को जापान द्वारा मदद उपलब्ध कराई गई थी. इस प्रकार के राजनीतिक विदेशी धन पर कोई एक फार्मूला लगाना उचित नहीं है. तानाशाही सरकार के विरोध में विदेशी धन उपलब्ध कराना उचित दिखता है, जैसा सुभाषचंद्र बोस जी को उपलब्ध करवाया गया, जबकि लोकतांत्रिक सरकार के विरोध में विदेशी धन उपलब्ध कराना अनुचित दिखता है, जैसा की वेनेजुएला में अमेरिका द्वारा किया गया था.

आज तमाम सरकारों के विरोध में विदेशी धन सक्रीय है. रूस में चुनावों पर नज़र रखने वाली संस्था गोलोस को विदेशी धन दिए जाने की पुष्टि हो चुकी है. नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित एमनेस्टी इंटरनेशनल तमाम देशों में तानाशाहों का विरोध करने वाले लोगों को मदद पहुंचती रही है. इसी तरह 1971 के बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम में भारत ने मदद पहुंचाई थी. म्यांमार में अहिंसक क्रांति करने वाली आंग सान सू को भी विदेशी धन से पोषित बताया जाता है.

अगर विदेशी धन से पोषित संस्था जनता के विरुद्ध कार्य कर रही है तो इसका निर्णय करने का अधिकार जनता को होना चाहिए, न कि सरकार को. लोकतंत्र में गलत कार्य में लिप्त संस्थाओं का भंडाफोड़ करने की पर्याप्त गुंजाइश होती है. अतः जनता के सामने इनका खुलासा करना चाहिए और डोनरों को भी ये सूचना देनी चाहिए. इस प्रकार की गतिविधियों पर अगर हम संदेह के आधार पर प्रतिबंध लगाएंगे तो दोहरा नुकसान होगा. हम सही कार्य करने वाली विदेशी संस्थाओं को बंद कर देंगे, जैसे ग्रीनपीस अगर जंगल बचा रही है तो हम जंगल कटवा देंगे. दूसरी ओर, विदेशी धन पर प्रतिबंध लगाने का अधिकार मेज़बान सरकार को देकर हम तानाशाहों को निरीह जनता को रौंदने को खुला मैदान उपलब्ध करा देंगे.

हमें ये ध्यान रखने की ज़रूरत है कि पूंजी का ग्लोबलाइजेशन हो चुका है इसलिए पूंजी के विरोधियों का भी ग्लोबलाइजेशन होने देना चाहिए. कोर्ट रूम में एक पक्ष को प्रवेश ही न करने दिया जाए तो कानूनी कार्यवाही ढकोसला रह जाती है. ग्लोबल एनजीओ पर प्रतिबंध लगाने से लोकतंत्र ढकोसला रह जाता है.

Devansh Tripathi

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