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हिंदुस्तान का आखिरी मुगल बादशाह जिसे मरने के बाद दो गज जमीन भी यहां नसीब न हुई

मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फर

मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फर – जब हम भारत के इतिहास की तरफ़ रुख करते हैं तो पाते हैं कि समय-समय पर यहां अनेक नस्ल और जातियों का आना लगा रहा है.

कई यहां आकर वापिस लौट चले और कुछ हमेशा के लिए यहां के होकर रह गए. इन्हीं जातियों में एक थे मुगल. मुगलों ने भारत आने के बाद इसे ही अपना वतन बना लिया. बाबर के आने से लेकर अंतिम मुगल शहंशाह तक मुगलों की एक नायाब विरासत रही है. इसी विरासत के आखिरी नुमाइंदे थे अंतिम मुगल बादशाह, मिर्ज़ा ज़फर सिराजुद्दीन मुहम्मद बहादुर शाह ज़फर यानि बहादुर शाह ज़फर.

मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फर की ताजपोशी

साल था 1837 जब सितंबर के महीने में पिता अकबर शाह द्वितीय की मौत के बाद ज़फर को राजगद्दी पर बैठाया गया. अकबर शाह अपने ज़िंदा रहते यह कभी भी नहीं चाहते थे कि ज़फर मुगलों की विरासत संभाले. वह ज़फर में वो क्षमता नहीं देखते थे जो सियासत को संभाल सके. बहादुर शाह का वैसे भी लगाव राजनीति में कम और शेरों-शायरी में ज्यादा रमता था.

मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फर

बेहतरीन शायर थे आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फर

मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फर मिज़ाज से एक शायर थे. उन्होंने अपने दरबार में भी शायरों को काफ़ी प्रोत्साहित किया था. मोहम्मद ग़ालिब और जौक उनमें शीर्ष पर थे. बहादुर शाह ख़ुद भी बेहतरीन शायरियां लिखा करते थे. उनकी शायरियों और गज़लों में जीवन की सच्चाइयां छिपी होती थी. आखिरी वक़्त में जब उन्हें ब्रिटिश हुकूमत द्वारा जेल में डाल दिया गया तो वे जेल में भी ग़ज़ल लिख कर अपना अंतिम वक़्त गुज़ारा करते.

मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फर

1857 की क्रांति के नायक थे मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फर

18वीं सदी के मध्य तक आते-आते ब्रिटिश हुकूमत का लगभग पूरे भारत पर शासन काबिज़ हो चुका था. जब 1857 के विद्रोह का सूत्रपात हुआ तो विद्रोही क्रांतिकारियों और महाराजाओं ने नेतृत्व के रूप में बहादुर शाह को चुना. ज़फर ने भी खुले दिल से इस आग्रह को स्वीकार किया और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ़ जंग में कूद पड़े. विद्रोहियों के पास रणनीतिक कमी के चलते आखिर में 82 साल के बूढ़े हो चले बादशाह को अंग्रेजों के सामने शिकस्त का सामना करना पड़ा.

मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फर

गिरफ्तारी के बाद रंगून भेज दिए गए-

बादशाह को 1857 के विद्रोह के खत्म होते ही गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें गिरफ्तार करके बर्मा के रंगून में अंग्रेजों ने भेज दिया. देश में बादशाह के प्रति कोई सहानुभूति पैदा न हो और जनता फिर से कोई विद्रोह न कर दे, इसलिए रंगून के जेल में बादशाह को भेजा गया था. जीवन के आखिरी पल हिंदुस्तान के अंतिम बादशाह ने अंग्रेजों की कैद में रह कर गुजारे.

अंग्रेजों की कैद में 7 नवम्बर 1862 को बहादुर शाह ज़फर ने आखिरी सांसे ली. अंग्रेजों ने किसी सामान्य इंसान की मौत की तरह ही बादशाह की मौत को तवज्जो दी. उनके शव के हिंदुस्तान भेजने के बजाय बर्मा की उनकी जेल के पास ही दफना दिया गया.

बहादुर शाह की खुद की लिखी एक ग़ज़ल कि चंद पंक्तियां उस लम्हें पर सटीक बैठती हैं-

‘कितना है बदनसीब ज़फर दफ़्न के लिए, दो ग़ज़ जमीन भी न मिली कू-ए-यार में’

300 से ज्यादा सालों तक हिंदुस्तान की बादशाहत संभालने वाले वंश के आखिरी बादशाह की यह नियति बताती है कि अंत हर चीज़ का होता है.

देशप्रेम और कौमी एकता के समर्थक ज़फर के दौर में जहां मुगलकालीन सत्ता कमजोर होती गई, वहीं उर्दू और ग़ज़ल मजबूत बनती गई. ज़फर की रचनाओं को ‘कुल्लियात ए ज़फर’ नाम से संकलित किया गया है.

हिंदुस्तान का आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फर आज भी रंगून की अपनी कब्र में कयामत के दिन के इंतज़ार में लेटा हुआ है. सत्ता, सरकारें, देश, रियासतें बदलते वक़्त के साथ यूँ ही बदलती रहेंगी और इतिहास बनाती चलेंगी.