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 मर्द केवल किरदार होता हैं और औरत पूरी कहानी!

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16 दिसम्बर 2012 को दिल्ली में एक हादसा हुआ था निर्भया कांड.

उस रात बलात्कार तो एक लड़की से हुआ था लेकिन हर औरत की इज्ज़त धज्जी-धज्जी हुई थी.

इस हादसे के बाद बहुत सी लड़कियों पर पहले से लगी पाबंदिया दोगुनी हो गयी. विनीता के साथ भी यही हुआ. चलती पढ़ाई बीच में रुकवा कर दिल्ली से घर वापस बुला लिया गया. किसी वाहियात सी मेट्रोमेनियल साईट से कोई लड़का चुना गया और एक कैदखाने से उठा कर दुसरे कैदखाने में धकेल दिया गया और इसके बाद विनीता की ज़िन्दगी में बस इतना बदलाव आया कि पहले कैदखाने में लोग उसकी तकलीफ पर उससे उसका हालचाल तो पूछ लेते थे पर शादी के बाद एक से दो होने जाने पर भी इतनी अकेली तो वो कभी नहीं हुई.

जब एक हाथी छोटा होता हैं, तो उसकी देखभाल करने वाला महावत रोज़ उसके पैरों को जंजीरों से बांध देता हैं, जिससे  हाथी का बच्चा उस जंज़ीर के दायरे में रहकर ही घुमता हैं. हाथी का बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होने लगता हैं, उसका महावत उसे जज़ीरों से बंधना तो बंद कर देता हैं, लेकिन जंज़ीर बांधने की वह पूरी क्रिया का ढोंग हर रोज़ करता हैं और हाथी इसी भ्रम में रहता हैं कि उसके पैर अभी भी बंधे हुए हैं.

छोटेपन से किया गया यह मानसिक छल हम हर स्त्री के साथ बचपन से करते हैं, और यही बात उनके दिलोदिमाग में इस तरह बैठ जाती हैं कि वो खुद ही एक दायरें में रहने लगती हैं.

दायरों में रहना कोई गलत बात नहीं, लेकिन दायरें तब तक सही हैं जब तक वह बेड़ियाँ न बने.

स्त्रियों के लिए हम सब ने एक दुनिया बना कर रख दी हैं, जहाँ उसे एक ऐसे प्राणी के रूप में देखा गया हैं, जिसे सबसे कमज़ोर और सबसे मजबुर ही समझा जाता हैं. बात अगर जन्म से लेकर मरने तक की होती हैं तो हर जगह औरतों को ही सारे समझौते करना बचपन से ही सिखा दिया जाता हैं.

हम भौतिक तौर पर तो इतने आगे बढ़ चुके हैं कि लेकिन आज भी देश के कई हिस्से मानसिक तौर पर इतने पिछड़े हैं कि उन इलाकों में महिलाओं की स्थिति तो इससे भी ज्यादा बद्दतर हैं. ऐसी जगह में अगर किसी घर में लड़का जन्म ले तो पुरे इलाके में जश्न मनाया जाता हैं, लेकिन लड़की हो गयी तो लोगों के चेहरे ऐसे उतर जाते हैं जैसे घर पर किसी मौत का मातम चल रहा हो.

बस यही से शुरू हो जाती लड़कियों की एक ऐसी कहानी जिसमे मुख्य किरदार तो वही होती हैं, लेकिन एक ऐसा किरदार जिसके पास कोई संवाद नहीं होता. पूरी कहानी चलती रहती हैं, ख़त्म भी हो जाती हैं, लेकिन उनका किरदार कभी सामने ही नहीं आ पाता हैं. बचपन से ही उसे रीति-रिवाज़ के नाम पर जेवरों की ऐसी रस्सियों से बांध दिया जाता हैं कि ताउम्र उसे इसके साथ रहने की आदत बन जाती हैं.

मजबूरियां समझौता बनती हैं और समझौते कब आदत बन जाते हैं यह किसी स्त्री से बेहतर कोई नहीं बता सकता हैं.

हम सब ने एक ऐसा समाज बना दिया हैं, जहाँ औरत के रूप में जन्म लेना ही एक औरत की सबसे बड़ी मज़बूरी बन चूकी हैं. बचपन में घर-घर नाम से खेला जाने वाले खेल से लेकर उठने-बैठने के तरीकों के नाम पर जो लैंगिक भेदभाव उनके साथ किया जाता हैं कि उसका असर उनके दिमाग में इतना गहरा पड़ता हैं कि हर औरत को ये यकीन हो जाता हैं कि उसे ज़िन्दगी भर किसी न किसी सहारे की ज़रूरत होगी और उसके लिए अकेले जीवन जीना सबसे दूभर काम होगा.

मर्दों द्वारा बनाये गए इस समाज ने हर बार इतनी चालाकी से औरतों की नरमदिली का फायदा उठाया हैं कि हर औरत की मानसिकता यही बन चुकी हैं कि वह सबसे कमज़ोर हैं चाहे वह शारीरिक तौर पर हो या ज़ेहनी तौर पर. घर के बाहर अगर पार्लर भी जाना हो तो घर वाले उसे अकेले जाने से रोक देते हैं.

हम सब यह पूरी तरह भूल चुके हैं कि यह वही औरत हैं जिसने हमें नौ महीने तक अपने भीतर जिंदा रखा था.

मैं आप से एक सवाल करता हूँ कि हम सब भगवान् को क्यों पुजते हैं? इसलिए न क्योकि उसने ही इस पूरे ब्रह्मांड की रचना की हैं वह एक मात्र रचयिता हैं, इसलिए इतना पूजनीय हैं.

लेकिन हम ये क्यों भूल जाते हैं कि एक औरत भी हम सब की रचियता हैं.

हम सब इंसान भी तो उसी से निकले हैं, फिर एक औरत के लिए ऐसा दोगलापन क्यों?

अपना पूरा जीवन अपने लोगों को दे देने वाली एक औरत को हम क्यों इतना कमज़ोर समझते हैं, हर बार हम उसे एक याचक के रूप में देखते हैं जबकि हमारा पूरा जीवन हमें उससे ही मिला हैं.

याद रखियें जिस कहानी की आज हम बात कर रहे हैं उसमे

“मर्द केवल किरदार होता हैं, और औरत पूरी कहानी”

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