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सोशल साइट्स से पहले कुछ ऐसी थी ज़िदंगी, ज़रा याद कीजिए वो खुशनुमा पल !

life before social media

सोशल मीडिया से पहले की ज़िदंगी – सोशल साइट्स आज सभी का ज़िदंगी का एक अहम हिस्सा बन चुकी है। जब तक सुबह उठकर फोन में सोशल साइट्स पर अपडेट चेक ना कर ले तब तक मानो हमारे दिन की शुरूआत ही नहीं होती।

सोशल साइट्स पर दुनिया भर की अपडेट चेक करना तो हमारी रोज़मर्रा की आदतों में शुमार हो गया है लेकिन वो तार कहीं खो से गए हैं जो हमे हमारे आस-पास के लोगों से जोड़ा करते थे।

आज दुनियाभर में क्या हो रहा है, दूर रहने वाले लोग क्या कर रहे हैं ये तो हमे पता होता है लेकिन अपने पड़ोस में कौन रह रहा है इससे हम अनजान होते हैं।

सोशल मीडिया से पहले की ज़िदंगी –

इन सोशल साइट्स के आने से पहले एक वक्त हुआ करता था जब रिश्ते दिखावटी नहीं थे, प्यार में शोऑफ नाम की बीमारी शामिल नहीं थी, जब आस-पड़ोस की आंटी भी हमारी बहुत करीबी हुआ करती थी, जब बच्चों की हर शाम दोस्तों के साथ खेल कूद किए बिना पूरी नहीं होती थी और जब बड़े भी कभी चौपालों पर तो कभी चबूतरों पर एक-दूसरे के साथ हंसी ठहाके लगाते हुए नज़र आते थे।

अब आप खुद ही सोचिए आखिरी बार जब आप अपनी फैमिली के साथ खाना खाना गए थे तो क्या आप उस वक्त को एज्वॉय कर रहे थे या फिर चंद अदद तस्वीरें खींचने में बिज़ी थी जिन्हे आप अपनी सोशल मीडिया वॉल पर शेयर कर चंद अदद लाइक्स पा सकें।

एक वक्त वो भी हुआ करता था जब हमारी उंगलियां फोन पर चलने की जगह हमारे अपनों का हाथ थाम कर चला करती थी।

कहिए, आपको भी याद है ना वो वक्त, कहिए क्या आप खूबसूरत वक्त को याद नहीं करते।

अच्छा एक बात बताइए जब आप या मै छोटे रहे होंगे, करीबन 90 के दशक की अगर मै बात करूं तो क्या हमारी ज़िदंगी में सोशल मीडिया का हस्तक्षेप था, जानती हूं आपका जवाब ना होगा।

पर अगर आप अपने दिल में कैद खूबसूरत यादों के बारे में सोचेंगे तो उसमें सबसे ज़्यादा यादें उसी दौर ही पाएंगे। वो पड़ोस पर जाकर घंटों बिताना, पड़ोस में अपनी हमउम्र बच्चों के साथ खेलना और पड़ोस की आंटियों का भी हमे वही दुलार देना जो हमे अपने घर पर मिलता है। घर पर पूरे परिवार के इकट्ठे होने पर अंताक्षरी खेलना, घर में कुछ अच्छी डिश बनने पर आस-पास के घरो में देना और उनके घर की अच्छी डिशेज़ का भी लुत्फ उठाना, सिर्फ त्यौहारों पर ही नहीं बल्कि पूरे साल एक-दूसरे के घर वक्त बिताना, ऐसा बहुत कुछ है जो उस दौर में हम किया करते थे।

हां, ये बात अच्छी है कि आज हम एक डिजिटल दुनिया में हैं लेकिन ये भी याद रखना बहुत ज़रूरी है कि सोशल साइट्स पर हम किसी के आंसू नहीं पोंछ सकते, किसी की मुस्कुराहट को महसूस नहीं कर सकते, किसी अपने के दर्द को बांट नहीं सकते। ये तो सच है कि इन सोशल साइट्स ने हमारे तार दूर देशों से जोड़ दिए हैं लेकिन दिलों के तार के जुड़े रहने से बेहतर कुछ नहीं है।

आखिर में यही कहना चाहूंगी कि सोशल साइट्स पर वक्त बिताना ज़रूरी नहीं है लेकिन अगर आप फोन से नज़र हटाकर अपने आस-पास देखेंगे तो दुनिया बहुत खूबसूरत है, ये महसूस करेंगे।

सोशल मीडिया पर लोगों से कनेक्ट रहना गलत नहीं है लेकिन अपने आस-पास भी नज़र उठा कर देखिए, कभी शाम को अपनी सोसाइटी के पार्क में जाकर बैठिए, कभी यूं ही आते-जाते किसी अनजान से बात कर के देखिए, कभी खुले आसमान के नीचे बैठकर अपने परिवार के साथ वक्त बिताइए, उसके बाद अंतर आप खुद ही महसूस करेंगे।

ये थी सोशल मीडिया से पहले की ज़िदंगी – सोशल मीडिया पर लोगों से कनेक्ट रहना गलत नहीं है लेकिन अपने आस-पास भी नज़र उठा कर देखिए, कभी शाम को अपनी सोसाइटी के पार्क में जाकर बैठिए, कभी यूं ही आते-जाते किसी अनजान से बात कर के देखिए, कभी खुले आसमान के नीचे बैठकर अपने परिवार के साथ वक्त बिताइए, उसके बाद अंतर आप खुद ही महसूस करेंगे।