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क्यों जेएनयू में लेफ्ट को हराना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है

जेएनयू – लाल सलाम, लाल सलाम… इस बार जेएनयू में लाल सलाम ने अपना झंडा फहरा दिया है और एबीवीपी को क्लीन स्वीप कर दिया है। वामपंथियों के लिए इस बार का चुनाव 2017 के चुनाव से ज्यादा अच्छा रहा। जहां पिछले साल एबीवीपी ने लेफ्ट को कड़ी टक्कर दी थी वहीं इस बार एबीवीपी का पूरी तरह से सफाया हो चुका है। सभी चारों मुख्य पदों के लिए हुए चुनाव में लेफ्ट और एबीवीपी के वोटों के बीच अच्छा-खासा मार्जिन रहा।

राजद का भी प्रदर्शन रहा बुरा

इस बार के चुनाव में राजद की तरफ से पहली बार उम्मीदवार उतारा गया था। राजद की तरफ से जयंत जिज्ञासु प्रेसिडेंट पद के चुनाव के लिए खड़े हुए थे। लेकिन वे चौथे स्थान पर रहे। उनका प्रदर्शन काफी निराशाजनक रहा।

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लेफ्ट का बना गढ़

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय हमेशा से वामपंथ छात्र संगठनों का गढ़ माना जाता रहा है और आगे भी जाएगा। वह अलग बात है कि बीते कुछ वर्षों में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) तेजी से वहां उभर रहा था लेकिन इस बार के चुनावों के परिणाम ने एबीवीपी के उभरने पर फिर से विराम लगा दी है।

एबीवीपी पिछले कुछ सालों से वामपंथ संगठन को अकेले ही कड़ी चुनौती दे रहा था। यही वजह है कि 2018 के जेएनयू छात्रसंघ चुनाव में भी सभी चार पदों पर एबीवीपी के उम्मीदवार ही दूसरे नंबर पर रहे हैं।

लेकिन इस बार लेफ्ट ने फिर से अच्छा प्रदर्शन करते हुए यह साबित कर दिया कि जेएनयू लेफ्ट का गढ़ था, है और हमेशा रहेगा।

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क्यों जेएनयू है लेफ्ट का गढ़

लेकिन सोचने वाली बात है कि क्यों JNU, लेफ्ट का गढ़ रहा है? इसलिए कि जब पूरे देश में भाजपा और मोदी लहर थी (जो की अब भी है थोड़ी बहुत) और एक के बाद एक पूरे राज्य में वह अपनी सरकार बना रहे थे तब एक जेएनयू ही ऐसी जगह थी जहां भाजपा का परचम नहीं लहरा था। लेकिन एबीवीपी साल दर साल प्रदर्शन अच्छा कर रहा था और इस बार का चुनाव हर किसी के लिए काफी निर्णायक होने वाला था।
और इस बार के चुनाव में लेफ्ट की एकतरफा जीत ने साबित कर दिया है कि फिलहाल जेएनयू में लेफ्ट को हराना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।

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मुद्दों की वजह से मिलते हैं वोट

कुछ बुद्धिजीवी कहते हैं कि एबीवीपी अच्छा प्रदर्शन कर रही है और वह दूसरे नम्बर की पार्टी बन गई है। इसलिए सारे वामदल उसके खिलाफ एकजुट हो गए हैं और यही उनके हारने की वजह हैं। वहीं दूसरे एक्सपर्ट मानते हैं कि ऐसा कुछ नहीं है। अगर वामपंथी एकजुट ना हो तभी जेएनयू में उन्हें हराना फिलहाल नामुमकिन है। क्योंकि जेएनयू में लेफ्ट को वोट वामपंथी होने के कारण नहीं बल्कि उनके मुद्दों के कारण मिलते हैं।

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दक्षिणपंथी राजनीति से असहमत

उनके अनुसार JNU के अधिकतर छात्र दक्षिणपंथी राजनीति से असहमत हैं इसलिए वे अपना वोट किसी न किसी वामपंथी उम्मीदवार को ही देते हैं। वहीं एक अन्य छात्र कहते हैं कि जेएनयू के ज्यादातर वोटर लेफ्ट की उस पार्टी को ही वोट देते हैं जिसके जीतने की संभावना ज्यादा होती है। इसलिए लेफ्ट को हराना फिलहाल नामुमकिन है क्योंकि जेएनयू के अधिकतर छात्र लेफ्ट के तरफ ही झुके हैं और लाल सलाम का नारा लगाते हैं।

लाल सलाम

एक बार कन्हैया ने जेल में एक पुलिस अधिकारी को लाल सलाम का मतलब पूछने के दौरान बताया था कि लाल मतलब होता है क्रांति और सलाम मतलब सलाम। मतलब कि क्रांति को सलाम। क्रांति हमेशा से युवाओं को अपनी तरफ आकर्षित करती रही है और यह भी वामपंथियों के जेएनयू में जीतने का कारण है।

तो अब आप समझ गए होंगे कि जेएनयू में क्यों हमेशा लेफ्ट ही जीतती है। इसलिए एक बार फिर से लाल को सलाम।

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