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कन्हैया जी सुधार की शुरुआत घर से होती है और राजनीति की दिल्ली से

कन्हैया कुमार को जेल से बेल मिल गयी है.

अब उसने देशविरोधी नारे लगाए या नहीं ये बहस की बात नहीं है.

कोर्ट में उसके साथ जो मारपीट की गयी वो भी बहुत ही शर्मनाक और गलत काम था जिसने भी ऐसा घटिया काम किया वो सजा के हकदार है.

समस्या ना कन्हैया से है ना किसी और से लेकिन हाँ कुछ सवाल है और कुछ संदेह है जिन्हें दूर करना आवश्यक है और वैसे भी कन्हैया ख़ुद भी आज़ादी के समर्थक है तो वो शायद हमारे सवाल पूछने की आज़ादी से बिदकेंगे नहीं.

तिहाड़ जेल जाने से पहले कन्हैया को कुछ अलग तरह की आज़ादी चाहिये थी. अब उसकी बात नहीं करते की तब क्या चाहिए था और क्या नहीं.

तीन हफ्ते जेल में रहे कन्हैया उसके बाद कोर्ट ने जमानत पर रिहा भी किया और अपने फैसले में कुछ खरी खरी बातें भी लिखी.

वैसे वो बातें बहुत से लोगों ने देखकर भी नज़रंदाज़ कर दी. वो क्या है ना वो सब लोग क्रांति के झंडाबर्दार की लोंचिंग की तैयारी में लगे थे.

तिहाड़ जेल से जमानत पर रिहा होकर आये कन्हैया. जेल में रहते हुए उनके गरीब घर से होने के बारे में बहुत सारी बातें वायरल की गयी थी.

उनका केस भारत के सबसे महंगे वकीलों में से एक ने लड़ा था. इस बात से भी हमें कोई तकलीफ नहीं बड़े बड़े लोग भी कभी कभी मुफ्त में काम कर देते है. खासकर तब जब आगे जाके अपने अहसान की चार गुनी कीमत वसूल कर सके.

जेल से बाहर JNU में कन्हैया चमचमाती फोर्चुनर में आए, उससे भी तकलीफ नहीं. ये ज़रूरी नहीं कि आपके पास गाडी ना हो तो आप गाड़ी में घूम भी नहीं सकते.

गाडी से बाहर कन्हैया चमचमाती चमड़े की जैकेट और चेहरे पर मस्त मेक अप करके उतरे. ऐसा लग रहा था कि किसी फिल्म के सीन शूट होने वाला है.

उसके बाद माइक हाथ में लेकर कन्हैया ने अपना भाषण शुरू किया और माफ़ करना लेकिन ये भाषण देश के किसी युवा का नहीं ये भाषण किसी नेता का लग रहा था.

जेल जाने से पहले उनके लिए आज़ादी कुछ और थी लेकिन जेल से बाहर आने के बाद उनके पूरे भाषण को सुनकर यही लगा कि उन्हें सिर्फ मोदी सरकार से आज़ादी चाहिए.

ऐसा लग रहा था की कन्हैया भी वही सब बोल रहे है जो अरविन्द केजरीवाल या उनके जैसे ही प्रसिद्धि के भूखे तथाकतिथ क्रांति के पुरेधा बोलते है.

कन्हैया के भाषण को सुनकर लगा कि समस्या पिछले डेढ़ साल में ही खडी हो गयी है उससे पहले ये भारत नहीं उटोपिया था. बोले तो परफेक्ट से भी परफेक्ट देश.

रंग दे बसंती का एक संवाद है “कोई भी देश परफेक्ट नहीं होता, उसे परफेक्ट बनाना पड़ता है.”

तो सवाल ये है कि देश को परफेक्ट कैसे बना सकते है? शुरुआत कहीं से तो करनी ही होगी ना ?

शुरुआत करने के लिए घर से बेहतर स्थान कौनसा हो सकता है?

कन्हैया आप बेगुसराय से है. बेगुसराय अपने समय में कम्युनिस्ट पार्टी का बहुत मज़बूत गढ़ रहा था. इससे बेहतर क्या होता कि सुधार की शुरुआत वहीँ से की जाये.

लेकिन ऐसा तो आपने नहीं किया. अभी आपकी उम्र 30 के करीब है कॉलेज करने के लिए आप पटना गए वहां भी आपने छात्र राजनीती में हिस्सा लिया जोकि एक बहुत अच्छी बात है.

अपने क्षेत्र के लोगों को अपनी बात पहुँचाने के लिए ये एक सराहनीय कदम था. लेकिन क्या सही में ये कदम अपने आसपास के क्षेत्र को ठीक करने के लिए था या फिर ये सिर्फ एक सीढ़ी थी आगे बढ़ने की.

पटना से आप दिल चले गए और JNU में अपनी राजनीती को और तराशने लगे. लेकिन इस बीच शायद आप भूल गए कि बेगुसराय आज भारत के सबसे ज्यादा पिछड़े शहरों में आता है. कम से कम एक शुरुआत तो करते वहां.

वहां कुछ नहीं हुआ वैसे उसमे आपका भी दोष नहीं है कम्युनिस्ट पार्टी का प्रभाव जहाँ जहाँ भी रहा है वो जगह बाद से बदहाल ही हुई है.

पश्चिम बंगाल का उदाहरण तो मुंह पर तमाचे जैसा है. उद्योग, न्याय, खेती शिक्षा, स्वास्थ्य कोई भी विभाग ले लीजिये 30 साल के कार्यकाल में किसी में भी सुधार नहीं हुआ.

क्या कारण था इस बात का? कम्युनिस्ट तो सबसे ज्यादा ज़मीन से जुड़े लोग माने जाते है ना? हमेशा किसानों, मजदूरों की और क्रांति की बात करने वाले?

कारण है कि मजदूर,किसान, क्रांति ये सब वोट बैंक है. हर एक इन सबकी बात करेगा लेकिन इनके लिए काम कोई नहीं करना चाहेगा.

आदिवासियों की बात होगी, नक्सली लोगों की बात होगी लेकिन उनको मुख्यधारा में लाने के लिए काम नहीं होंगे.

उनको रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य इन सब सुविधाओं से दूर रखा जाएगा. ऐसा करने पर ही रो राजनीती चलेगी ना.

भारत के कम्युनिस्ट जानते है कि केंद्र की राजनीती से तो वो कब के ही हाशिये पर जा चुके है ऐसे में जो बचा कूचा वोट बैंक  है वो तब तक सलामत है जब तक उन्हें सिर्फ भड़काया जाये और उनकी भूख को भूखा ही रहने दिया जाए.

कुछ लोग कह रहे है कन्हैया नेता नहीं है वो सिस्टम से सताए लोगों की उम्मीद है. 

हम कहते है कि वो खालिस नेता है कॉलेज के ज़माने से राजनीती की और भारत के सबसे अच्छे विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए यदि वो सिस्टम या सिस्टम की राजनीती को नहीं समझने की बात बोलते है तो ये एक मजाक ही है.

असल में कन्हैया इस सिस्टम को बहुत ही अच्छे ढंग से जानते है और उतने ही अच्छे ढंग से जानते है भारत के लोगों के स्वभाव को.

यहाँ के लोग ऐसे है जो नीरजा भनोट, हेमंत करकरे , दशरथ मांझी या  ऐसे ही अनेकों लोग जिन्होंने  अपनी कार्य निष्ठा से लोगों की जिंदगियां ना सिर्फ बचायी है बल्कि बदलाव भी लाये है उनको तभी जानते है जब उनपर कोई फिल्म बनती है.

पता है ऐसा क्यों होता है? क्योंकि ये लोग लम्बे लम्बे भाषण नहीं देते जिनसे लोगो को मज़ा आता है.

कन्हैया गरीबी, सुधार और आज़ादी की शुरुआत करनी ही थी तो बेगुसराय से क्यों नहीं की? वहां लोगों की क्या हालत है, महिलाओं की क्या हालत है ये तो हमने जाकर देखा है वहां.

वहां शायद सुधार ना करने का कारण ये था कि लाइमलाइट नहीं मिलती.

कन्हैया आज से तुम क्रांति लेन वाले युवा नहीं बल्कि एक नेताजी बन गए हो.

ये बात सब जानते है  नेता जी सुधार की शुरुआत घर से होती है दिल्ली से सिर्फ राजनीती होती है  

आने वाले 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में कन्हैया कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से प्रचारक होंगे.

PK फिल्म की तर्ज पर कन्हैया तुम भी रॉंग नंबर निकले.

Yogesh Pareek

Writer, wanderer , crazy movie buff, insane reader, lost soul and master of sarcasm.. Spiritual but not religious. worship Stanley Kubrick . in short A Mad in the Bad World.

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Yogesh Pareek

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