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प्रधानमंत्री मोदी अपनी इजराइल यात्रा में इस बात का जिक्र करना नहीं भूल सकतें क्योंकि

हाफिया का युद्ध

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब अगले महीने इजराइल की यात्रा पर जाएंगे तो वहां वे एक बात का जिक्र करना नहीं भूलेंगे.

वह है हाफिया का युद्ध का. हाफिया इजरायल की राजधानी से 90 किलोमीटर दूर स्थित एक समुद्री बंदरगाह वाला शहर है. पूरी संभावना है कि प्रधानमंत्री हाफिया के शहीद स्मारक पर भी जाए.

आपको बता दें कि प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान 1918 में कुछ भारतीय सैनिक अंग्रेजों की ओर से लड़ने के लिए फिलिस्तीन की हाफिया पोस्ट पर पहुंचे. ये सैनिक ब्रिटिश भारतीय सेना के सिपाही न होकर तीन रियायतों हैदराबाद, जोधपुर व मैसूर लांसर के सिपाही थे.

हाफिया का युद्ध

ज्ञात हो कि जोधपुर की सैनिक टुकड़ी में पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह के पिता ठाकुर सरदार सिंह राठोड़ भी शामिल थे. वहां इन लोगों का मुकाबला टर्की की आटोमन साम्राज्य की सेनाओं से हुआ जिनको जर्मन व आस्ट्रिया की सेनाओं की भी मदद हासिल थी.

बताया जाता है कि जब भारतीय सेनाओं का खलीफा की सेना से सामना होने जा रहा था तो उस समय अंग्रेजों के सामने समस्या पैदा हो गई. जोधपुर व मैसूर लांजर की सेना में हिंदू सिपाही थे जबकि हैदराबाद की सेना के सिपाही मुसलमान थे.

अंग्रेजों को लगा कि ये लोग इस्लामी खलीफा की सेना से मुकाबला करने से मुकर सकते हैं. अतः उन्होंने उन लोगों को सीधे मोर्चे पर लड़ने के लिए भेजने की जगह दूसरे कामों में लगा दिया.

हाफिया का युद्ध

मैसूर व जोधपुर की सेनाएं अपने घोड़ों पर आगे बढ़ी, उनके पास तलवार और भाले थे जबकि उनका सामाना तोपों व मशीनगन से हो रहा था. ब्रिटिश अफसरों ने उनसे वापस लौट आने को कहा मगर उन्होंने ऐसा करने से इंकार कर दिया. उन्होंने कहा कि हमने युद्ध में पीठ दिखाना नहीं सीखा हैं.

अगर हम बिना लड़े वापस लौटे तो अपने देश जाकर वहां के लोगों को क्या मुंह दिखाएंगे. इसका परिणाम यह हुआ कि आमने-सामने की लड़ाई में 900 भारतीय सैनिक मारे गए. साथ ही इस युद्ध में उन्होंने दुश्मन के 700 सैनिको को बंदी बना लिया.

हाफिया का युद्ध उनकी वीरता का परिणाम था. 12 सितंबर 1918 को हाफिया पर जीत हासिल की. शहीद सैनिकों का अंतिम संस्कार वहीं करने के बाद उनकी अस्थियां भारत भेज दी गई.

हमारे देश का दुर्भाग्य यह रहा कि आजादी के बाद से ही हमारे नेता खुलकर इजरायल का साथ देने से कतराते रहे क्योंकि उन्हें लगता था कि देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक वोट बैंक कहीं उनसे नाराज न हो जाए.

इसलिए देश के दस्तावेजों में भी कहीं भी हाफिया का युद्ध व उसमें शाहदत देने वाले भारतीय जवानों का जिक्र नहीं किया गया.

लेकिन तब से लेकर आज तक इजराइली सेना 23 सितंबर को हर साल हाफिया दिवस मनाती है. इजराइल में इस लड़ाई को इतनी अहमियत दी जाती है कि इस प्रकरण को वहां पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है.

हर साल वहां हाफिया दिवस पर कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं. ध्यान रहे कि जब हाफिया का युद्ध हुआ था तब हाफिया सबसे पहले आजाद करवाया गया था.