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जर्मनी ने अपनी एअरलाइन का नाम संस्कृत में ही क्यों रखा है?

एअरलाइन का नाम

जर्मनी ने अपनी एअरलाइन का नाम संस्कृत में रखा है

आपको पढ़कर शायद आश्चर्य होगा कि यूरोप के देश जर्मनी ने अपने देश की एअरलाइन का नाम का जो नाम रखा है वह न केवल भारतीय नाम है बल्कि संस्कृत निष्ठ शब्द से लिया गया है.

जर्मनी की एअरलाइन का नाम का नाम है लुफ्तांसा. जिसे लुप्तांशा भी बोला जाता है. ये शब्द देखने और सुनने में भले जर्मन लगता है लेकिन ऐसा है नहीं. दरअसल लुफ्तांसा सही शब्द नहीं है. सही शब्द है लुप्तहंसा है जिसका अर्थ होता है जो हंस लुप्त हो गए हैं.

भारत उपमहाद्वीप में हंस काफी मात्रा में पाए जाते थे लेकिन अब वे लुप्त हो के कगार पर है.

यहां हम आपको बता दे कि लुप्त और हंस दोनों ही संस्कृत के शब्द हैं.

अगर कभी आपको देखने का मौका मिले तो लुफ्तांसा एअरलाइन पर बने हंस की पेंटिंग को अवश्य देखिएगा. आपको गर्व की अनुभूति होगी. यहां सवाल जर्मनी की विमान सेवा के नाम का नहीं है बल्कि मानसिकता की भी है.

एक ओर दुनिया हमारी प्राचीन संस्कृत भाषा की कद्र कर उस पर रिसर्च कर रही हैं वही हम भारतीय अपने प्रतिष्ठानों और कार्यक्रमों के नाम अंग्रेजी में रखकर सीना चैड़ाकर फूले नहीं संमाहते है.

हम हिंदी, मराठी, गुजराती बोलने और लिखने में शर्म महसूस करते हैं.

जर्मनी अगर चाहता तो जर्मन भाषा में भी लुप्तहंसा का अनुवाद अपनी एअरलाइन का नाम रख सकता था. लेकिन उसने ज्यों का त्यों नाम सस्कृत भाषा में स्वीकार किया. इतना ही नहीं यदि आप शब्द पर गौर करेंगे तो देखेंगे कि लुप्तहंसा शब्द दो शब्दों लुप्त और हंसा की संधि करके बनाया गया है.

संस्कृत भाषा को सभी भाषाओ की जननी माना जाता है. क्योंकि दुनियां की अधिकत भाषाओं के काफी शब्दों का उद्गम संस्कृत से ही माना जाता है. भाषाओं में भी सबसे प्रमाणिक और प्राचीन व्याकरण संस्कृत भाषा का ही है. आज जर्मनी मे विश्वविद्यालयो की शिक्षा मे संस्कृत की पढ़ाई पर और संस्कृत के शास्त्रो की पढ़ाई पर सबसे अधिक पैसा खर्च हो रहा है. जर्मनी भारत के बाहर दुनिया का पहला देश है जिसने अपनी एक यूनिवर्सिटी संस्कृत साहित्य के लिए समर्पित की हुई है.

यही नहीं हमारे देश मे आयुर्वेद के जनक माने जाने वाले आयुर्वेदाचार्य महाऋषि चरक के नाम पर जर्मनी ने एक विभाग भी बनाया है उसका नाम ही है चरकोलजी.

विचारणीय प्रश्न है कि आजादी के वर्षाें बाद हम भारत के लोग भारत को विदेशी भाषा की गुलामी से मुक्त नहीं करवा पा रहें है. अंग्रेजी और जर्मन आदि भाषाओं को सीखने और बोलने का जहां तक सवाल है इनमें कोई बुराई नहीं है. लेकिन जब मातृ भाषा पर वरीयता की बात आए तो हमें अपनी मातृ भाषा और राष्ट्र भाषा को ही वरीयता देनी चाहिए.

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