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क्या नरेन्द्र मोदी ने भेजा असदुद्दीन ओवैसी को फ्रेंड रिक्वेस्ट?

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दुश्मन के दोस्त को अपना दोस्त बना लेना सबसे ज्यादा बुद्धिमानी का काम होता है.

और ऐसे बुद्धिमानी के कार्य नरेंद्र मोदी बखूबी निभाते हैं.

आप सोच रहे होंगे की आखिर हम कहना क्या चाहते हैं? तो हम ये कहना चाहते हैं की नरेन्द्र मोदी और असदुद्दीन ओवैसी की दोस्ती भले बाहर से ना दिखाई पड़े, पर परदे के पीछे ये अच्छे दोस्त हैं, ऐसा प्रतीत होता है.

जो कि एक दूसरे को फायदा पहुंचाते दिखाई दे रहे हैं.

इस दोस्ती की शुरुआत 24 मई 2014 को हुई, जिस दिन नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद के लिए शपथ ग्रहण किया.

इससे पहले ओवैसी ब्रदर्स सिर्फ हैदराबाद तक ही सीमित थे. पर 2014 के बाद महाराष्ट्र पहुंचे और सिर्फ पहुंचे ही नहीं 2 सीट्स भी जीती, कई सीटों पर दूसरे स्थान पर रहे. यही नहीं हाल ही में जब बांद्रा उपचुनाव हुए तो वहाँ एम् आई एम् को लगभग 24000 से ज्यादा वोट मिले. लगभग यही हालात दिल्ली में भी रहे जहाँ अरविन्द केजरीवाल और ओवैसी की मुलाक़ात हुई थी, और ये माना जा रहा है की उनके बीच समझौता हुआ था.

उत्तर प्रदेश में भी ओवैसी की पकड़ धीरे- धीरे मजबूत हो रही है.

2017 में यहाँ चुनाव होने वाले हैं, जिसकी तैयारी पार्टियों ने अभी से शुरू कर दी है. उत्तर प्रदेश में 22 प्रतिशत वोट मुस्लिम समुदाय के हैं. जिसके लिए कांग्रेस सहित बाकी पार्टियों के बीच घमासान होता आया है. इसी 22 प्रतिशत वोट बैंक पर सालो से कांग्रेस, सपा जैसी पार्टियाँ राजनीति करती आई हैं. पर इनके हालात में कोई बदलाव नहीं आया है.

ऐसे में एम् आई एम् का उत्तर प्रदेश में आना किस तरह का राजनितिक बदलाव लाता है?

और साथ ही क्या मुस्लिमों की स्तिथि में कोई सुधार ला पाता है की नहीं? ये भी देखना होगा. कहा जा सकता है की 2017 के चुनाव में एम् आई एम् के उभरने का कांग्रेस के साथ-साथ बाकी क्षेत्रीय पार्टीयों पर भारी असर पड़ सकता है.

अब हम 2014 के पहले की ओवैसी की राजनीति पर गौर फरमाते हैं. ओवैसी की पकड़ सिर्फ हैदराबाद में थी. एम् आई एम् के खिलाफ कांग्रेस अपने कैंडिडेट खड़ी नहीं करती थी. आखिर 2014 के बाद ऐसा क्या हुआ की एम् आई एम् अचानक से हैदराबाद के बाहर निकली और निकली ही नहीं अपनी छाप भी छोड़ी. 2014 के पहले ओवैसी का मीडिया प्रेजेंस भी बहुत कम था. अब ओवैसी मीडिया में छाये रहते हैं. इससे पहले अल्पसंख्यक समुदाय को प्रेजेंट करने के लिए और उनकी बाते इतनी मजबूती से रखने के लिए किसी कद्दावर नेता की कमी थी.

मेनस्ट्रीम मीडिया को भी ऐसा चेहरा चाहिये था जो अल्पसंख्यको के मुद्दे पर बात करे और साथ ही अपनी टी आर पी भी बढ़ाये.

ओवैसी का हैदराबाद की राजनीति से निकलकर देश के राजनीतीक परिदृश्य में उभरना किस तरह के परिवर्तन देश की राजनीती में लाता है ये देखना होगा.

और साथ ही कांग्रेस सहित बाकि क्षेत्रीय पार्टियाँ जो तथाकथित मुस्लिम समुदाय की हितैषी बनती थी उनके वोट बैंक पर इसका कितना असर पड़ता है?

क्यूंकि इसका असर हालिया महाराष्ट्र और दिल्ली के चुनावों में देखने को मिला. तो आगे आने वाले दिनों में परदे के पीछे की इस दोस्ती को हम आगे और बढ़ता देख सकते हैं.