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विपक्ष की जीत के बाद खत्म हो गया ईवीएम का मुद्दा !

ईवीएम का मुद्दा

ईवीएम का मुद्दा – पिछले दिनों राजस्थान व पश्चिम बंगाल में हुए उपचुनाव में भाजपा को 440 वोल्ट का झटका लगा।

कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के जीत के जशन के शोरगुल में ईवीएम का मुद्दा गुम हो गया.  ऐसे में क्या यह माना जाए कि राजस्थान व पश्चिम बंगाल में गैर भाजपा दलों की जीत के ने ईवीएम की गड़बड़ी के मुद्दा को खत्म कर दिया है। विपक्ष की जीत के बाद इस मुद्दे पर और बहस की जरूरत नहीं है। कल तक ईवीएम का मुद्दा ये था कि ईवीएम मशीन से भाजपा जीत रही थी, आज वो विपक्ष को कैसे विजय का आशीर्वाद देने लगी। क्या राजनीतिक दलों ने ईवीएम को बलि का बकरा समझ लिया है, या फिर राजनीतिक दल हार की हताशा, निराशा और खीझ का घड़ा ईवीएम पर फोड़ते हैं।

पिछले साल यूपी विधानसभा चुनाव में भाजपा के छप्पर फाड़ जीत के बाद खुद ईवीएम से जीते नेताओं –

ईवीएम का मुद्दा

मायावती और अखिलेश यादव ने अपनी हार का ठीकर ईवीएम के माथे फोड़ा था। इन नेताओं ने भविष्य में चुनाव बैलेट से करवाने की मांग चुनाव आयोग से की थी। यह तथ्य दिलचस्प है कि यूपी के साथ उत्तराखण्ड, पंजाब, गोवा और मणिपुर विधानसभा चुनाव के नतीजे भी घोषित हुए थे। पंजाब में कांग्रेस को इन्हीं ईवीएम मशीनों के मार्फत 77, गोवा में 17 और मणिपुर में 28 सीटें हासिल हुईं। जो बाकी अन्य दलों के मुकाबले सर्वाधिक थी। कांग्रेस ने पंजाब में ही सरकार भी इन्हीं ईवीएम मशीनों की बदौलत बनाई। उत्तराखण्ड में कांग्रेस 11 सीटें जीत सकी। पंजाब में उम्मीद के मुताबिक नतीजे न आने पर आम आदमी पार्टी ने भी का मुद्दा उठाया और ईवीएम में गड़बड़ी के आरोप लगाये थे।

ईवीएम का मुद्दा

पिछले साल अप्रैल में ईवीएम के इस्तेमाल को चुनौती देने वाली बीएसपी की याचिका पर सुनवाई के दौरान जस्टिस जे. चेलमेश्वर और जस्टिस ए. अब्दुल नाजीस की बेंच ने टिप्पणी करते हुए कहा था कि, जब तक कॉंग्रेस जीत रही थी तब तक ईवीएम मशीन ठीक थी अब हार रही है तो वो खराब हो गयी? सुप्रीम कोर्ट ने याचिका की सुनवाई करते हुए केंद्र और चुनाव आयोग से पूछा था कि क्या इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनें टैंपरप्रूफ हैं? यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का तर्क है कि जब एटीएम मशीन हैक हो सकती है तो ईवीएम क्यों नहीं। वो अलग बात है कि इन्हीं ईवीएम मशीनों की बदौलत 2012 में अखिलेश और 2007 में मायावती को यूपी में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी।

बीते साल नवंबर-दिसंबर में यूपी में हुए निकाय चुनाव में करारी हार के बाद सपा और बसपा समेत सभी दलों ने खुलकर ईवीएम का मुद्दा उठाया और ईवीएम मशीनों में फिर गड़बड़ी का आरोप लगाया। वो अलग बात है कि यूपी में 16 नगर निगमों में से 14 पर भाजपा और दो पर (अलीगढ़ और मेरठ) बहुजन समाज पार्टी ने कब्जा किया। हिमाचल व गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान ईवीएम में गड़बड़ी के आरोप लगे। कांग्रेस गुजरात में ईवीएम में गड़बड़ी का आरोप लगा रही थी, वहां उसने भाजपा को कड़ी टक्कर देते हुए 77 सीटें जीतीं। जबकि पूरा जोर लगाने के बाद भी भाजपा बामुश्किल 99 का आंकड़ा छू सकी।

ईवीएम का मुद्दा

पिछले साल राजनीतिक दलों के भारी विरोध और आपत्तियों के बाद चुनाव आयोग ने देश के तमाम राजनीतिक दलों को चुनौती दी थी कि वो ईवीएम को हैक करके दिखाएं। तब ईवीएम का मुद्दा उठानेवाले कोई भी दल चुनाव आयोग की चुनौती का सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। वर्ष 2006 में चुनाव आयोग ने जब ईवीएम के इस्तेमाल पर सभी पार्टियों की बैठक बुलाई थी, तो किसी ने इसका विरोध नहीं किया था। वीवीपैट वाली ईवीएम के इस्तेमाल का आदेश सुप्रीम कोर्ट ने अक्टूबर, 2013 में बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी की जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान दिया था।

लेकिन इसकी व्यवस्था करने के लिए चुनाव आयोग को 3000 करोड़ चाहिए और बीते तीन साल में केंद्र सरकार से उसे ये पैसा नहीं मिला है।

इतिहास के पन्ने पलटें तो देश में भाजपा ईवीएम का मुद्दा उठानेवाली, ईवीएम का विरोध करने वाली सबसे पहली राजनीतिक पार्टी थी।

2009 में जब भारतीय जनता पार्टी को चुनावी हार का सामना करना पड़ा, तब पार्टी के नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने सबसे पहले ईवीएम का मुद्दा उठाया था । इसके बाद पार्टी ने देशभर में सुनियोजित अभियान चलाया था। भाजपा के मौजूदा प्रवक्ता और चुनावी मामलों के विशेषज्ञ जीवीएल नरसिम्हा राव ने वर्ष 2010 में एक किताब लिखी- ‘डेमोक्रेसी एट रिस्क, कैन वी ट्रस्ट ऑर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन?’ इस किताब की प्रस्तावना लाल कृष्ण आडवाणी ने लिखी और इसमें आंध्र प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री एन चंद्राबाबू नायडू का संदेश भी प्रकाशित है।

देश में ईवीएम के प्रयोग पर सबसे पहले सवाल दिल्ली हाई कोर्ट में वरिष्ठ वकील प्राण नाथ लेखी (बीजेपी नेता मीनाक्षी लेखी के पिता) ने 2004 में ही उठाया था। भाजपा के वरिष्ठ नेता सुब्रमण्यम स्वामी भी ईवीएम के इस्तेमाल का जोर शोर से विरोध करते रहे हैं। उन्होंने 2009 के चुनावी नतीजे के बाद सार्वजनिक तौर पर ये आरोप लगाया था कि 90 ऐसी सीटों पर कांग्रेस पार्टी ने जीत हासिल की है जो असंभव है। जिस भारतीय जनता पार्टी ने ईवीएम का सबसे ज्यादा विरोध किया उसकी आज केंद्र समेत 19 राज्यों में सरकार है। इसलिए आज भगवा खेमे से कोई आवाज ईवीएम के विरोध में सुनाई नहीं देती है।

वर्ष 2009 के आम चुनावों में जब बीजेपी के नेता ईवीएम पर सवाल उठा रहे थे, ठीक उसी वक्त ओडिशा कांग्रेस के नेता जेबी पटनायक ने भी राज्य विधानसभा में बीजू जनता दल की जीत की वजह ईवीएम को ठहराया था। 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की जीत के बाद कांग्रेस के नेता और असम के मुख्यमंत्री तरूण गोगोई ने भी ईवीएम पर सवाल उठाए थे और कहा था कि बीजेपी की जीत की वजह ईवीएम है। ऐसे में ये कहा जा सकता है कि भारत में जब तक पार्टियां चुनाव नहीं हारने लगतीं तब तक उन्हें ईवीएम मशीन से कोई शिकायत नहीं होती।

भारत में ईवीएम का विरोध वो नेता भी कर रहे हैं, या फिर पूर्व में कर चुके हैं, जिन्होंने चुनाव में जोरदार कामयाबी हासिल की है। इसमें राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव, यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती, अखिलेश यादव, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल शामिल हैं। ये सारें नेता ईवीएम के इस्तेमाल पर रोक लगाने की मांग कर चुके हैं। ये अलग बात है कि इन्हें अलग चुनावों में बहुमत भी मिला है। वैसे चुनाव आयोग समय समय पर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन को आधुनिक बनाने की दिशा में काम करता रहा है। पिछले साल पांच राज्यों में होने वाले चुनाव से ठीक पहले भी चुनाव आयोग ने ईवीएम को आधुनिक बनाने के लिए टेंडर मंगाए थे। ईवीएम में गड़बड़ी का एक मामला पिछले साल मध्य प्रदेश में सामने आया था। जाच में चुनाव आयोग की टीम ने भी मशीन में खराबी पाई थी।

मायावती और अखिलेश यादव समेत कई नेता 2019 में लोकसभा चुनाव ईवीएम की बजाय बैलेट से करवाने की मांग कर रहे हैं। वैसे बैलेट पेपर से चुनाव कराए जाने की स्थिति में भारत की चुनावी प्रक्रिया लंबी भी होगी और खर्च भी बढ़ेगा। दुनिया भर के विकसित देशों में बैलेट पेपर से ही चुनाव कराए जाते हैं, उस अमीरका में भी जहां ईवीएम पहली बार बना था। राजस्थान और पश्चिम बंगाल की जीत के जश्न में भले ही विपक्ष ने ईवीएम का मुद्दे पर चुप्पी साध ली हो, लेकिन इस साल कई राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में यह मुद्दा एक बार फिर गर्माएगा। लबोलुबाब यह है कि चुनाव जीतने वाले को ईवीएम में अच्छाइयां दिखाई देती हैं और हारने वालों को बुराइयां।