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भिक्षा ऐसे बनी वरदान से अभिशाप

भारत में भिक्षुक

हमारे देश में भिक्षा मांगने का इतिहास काफी पुराना है.

प्राचीन काल से भारत में भिक्षा मांगने की परमपरा रही है.

लेकिन वर्तमान भारत में भिक्षुक का जो स्वरूप है उससे वह कतई मेल नहीं खाता है.

आज जब सड़कों और चैराहों पर हम लोगों को भिक्षा मांगते हुए देखते हैं तो हमारे मन एक अजीब सा भाव उत्पन्न होता है. भिखारियों को देखकर प्राय हमारे मन में जो भाव उत्पन्न होता है उसमें दया का भाव कम घृणा का भाव अधिक होता है.

जबकि प्राचीन समय में ऐसा नहीं था. उस समय भारत में भिक्षुक को लेकर लोगों के मन में घृणा या तिरस्कार का भाव नहीं बल्कि सम्मान और श्रद्धा का भाव होता था.

आपको बता दें कि प्राचीन भारत में भिक्षुक को बहुत सम्मान के दृष्टि से देखा जाता था.

प्राचीन काल भारत में भिक्षुक दो प्रकार के होते थे.

एक तो साधु और सन्यासी लोग होते थे जो वनों में रहकर तपस्या करते थे दूसरे तरूण ब्रह्मचारी होते थे भिक्षा मांगकर शिक्षा प्राप्त करते थे.

बाल्यकाल में जो छात्र भिक्षा मांगते थे उसके पीछे उद्देश्य था कि इसके जरिए छात्र को नम्र बनाना. उसको इस बात का आभास कराना था कि वह समाज की सहायता और साहनुभूति से शिक्षा प्राप्त कर रहा है. साथ ही भिक्षा मांगकर शिक्षा प्राप्त करने के नियम का एक बड़ा लाभ यह होता था कि इसके माध्यम से धनी और गरीब दोनों ही शिक्षा प्राप्त कर सकते थे.

वहीं इसके माध्यम से शिक्षा की यह व्यवस्था जहां समाज को इस कर्तव्य का बोध कराती थी कि भावी पीढ़ी की शिक्षा के लिए उसकी भी भागेदारी होनी चाहिए, वहीं यह छात्रों को भी इस बात का एहसास कराती थी कि शिक्षा प्राप्त करने के बाद समाज का विकास करना उसकी जिम्मेंदारी है.

यही वजह थी कि धर्मशास्त्रों में सभी ग्रहस्थों के लिए छात्रों और साधुओं के लिए भिक्षा देना आवश्यक कर्तव्य निर्धारित किया था. लेकिन साथ छात्र और साधु भी इस नियम से बंधे होते थे कि वह अपनी जरूरत से अधित भिक्षा नहीं लेंगे. यदि वह ऐसा करता है तो पाप का भागी होगा.

लेकिन प्राचीन समय में जो भिक्षा समाज और साधु व छात्र दोनों के वरदान साबित होती थी आज वह एक अभिशाप बन गई है. एक ऐसा अभिशाप जिससे मुक्ति पाने के लिए समाज ही नहीं पूरा देश छटपटा रहा है.

सरकार और समाज हर कोई यही चाहता है कि भारत को इस अभिशाप से मुक्ति मिल जाए. जो भिक्षा शिक्षार्थी को आत्मनिर्भरता, आत्म संयम के साथ जीवन और समाज में आचरण करना सिखाती थी, उसी भिक्षा के जरिए आज लोग चरस, गांजा और जुआ जैसे अनैतिक कार्यों में लगे हैं.

विद्यार्थी भिक्षा मांगकर जीवन में आत्म निर्भरता की ओर अग्रसर होता था जो आज भिक्षा दूसरों की दया पर जीने और कामचोरी का जरिया बन गई है. पूर्व में भिक्षा मांगने से जहां लोगों के मन में अहंकार समाप्त हो जाता था आज सड़कों पर भीख मांगते लोगों में अंधकार भरा पड़ा है. भिक्षा के लिए उन्होंने न केवल अपना आत्मसम्मान गिरवी रख दिया है बल्कि इस दलदल से निकलने का खयाल भी अपने से मन से निकाल दिया है.

ऐसे लोगों के मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक कायाकल्प के लिए यंगस्थिान ने एक मुहिम शुरू की है. जिसके माध्यम से देश व समाज को न केवल भिखारियों से मुक्त बनाना है बल्कि लोगों को भी उस दिशा में प्ररित करना है. हम इन भिक्षारियों के प्रति मन में दया और सदभावना का जो भाव दर्शाते हुए उन्हें पैसे देते हैं उसे बंद कर एक नई दिशा में प्रयास करना होगा.

जहां हम इनको न केवल इस दलदल से निकाल कर आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में बढ़ेंगे बल्कि देश में माथे से ये काला कलंक भी साफ करने में यंगिस्थान की मुहिम भिखारी मुक्त भारत बनाने में सहयोग करेगी.