इतिहास

दो देशभक्त सन्यासी बाबा जो हिमालय की गुफाओं में मिले और अंग्रेजों से लड़ने को तैयार किये लाखों सैनिक

महात्मा आपको हमारी झाँसी कैसी लगी है?

तब साधु स्वामी दयानंद के वचन थे कि पूरा देश पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ता जा रहा है ऐसे में झाँसी में भी आकर आखों से आसूं टपकते हैं. बाबा ने जब यह बोला तो वहां मौजूद हजारों लोगों का प्रश्न था कि स्वामी इन बेड़ियों को कैसे काटा जा सकता है?

कोई एक राज्य इन अंग्रेजों से नहीं लड़ सकता है. यदि सारे देश से अंग्रेजों को भगाना है तो सारे देश में आजादी की लड़ाई शुरू करनी होगी. जैसे शंकराचार्य ने धर्म की रक्षा के लिए चारों धाम बनाये थे उसी तरह से हमको देश की रक्षा के लिए जगह-जगह आजादी के मठ स्थापित करने होंगे. जब स्वामी दयानंद सरस्वती के यह वचन लोगों ने सुने थे तो वह इनके साथ आजादी की लड़ाई लड़ने को तैयार हो गये थे. कहते हैं कि दयानंद सरस्वती ने ही 1857 की क्रांति की चिंगारी को भड़काया था.

स्वतंत्रता आन्दोलन में मेरठइस नाम से छपी पुस्तक में दयानंद सरस्वती का 1857 क्रान्ति मेंयोगदान खुलकर बताया गया है.

वहीं दूसरी तरफ बंसुरिया बाबा थे जो अपने ज्ञान के मार्ग को इसलिए छोड़ चुके थे क्योकि इनकी मातृभूमि तब आजाद नहीं थी.

वैसे बताया जाता था है कि बंसुरिया बाबा और दयानंद सरस्वती दोनों ही हिमालय की गुफाओं से दोस्त थे. बंसुरिया बाबा और दयानंद सरस्वती इसलिए दुखी थे क्योकि अंग्रेज भारत में अपना साम्राज्य बढ़ा रहे थे और भारत की संस्कृति पर चोट कर रहे थे. जब यह दोनों संस्यासी मिले थे तबदोनों गुरु की खीज में थे किन्तु जब दोनों मिले और देश में जगह-जगह के हालातों पर चर्चा की तो दोनों दुखी हो गये थे.

मंगल पांडे बारी-बारी से मिला था बंसुरिया बाबा और दयानंद सरस्वती से

बंसुरिया बाबा और दयानंद सरस्वती को 1857 की क्रांति का पिता बताया जाता है.

कारतूस में चर्बी है यह बात सबसे पहले इन्हीं दोनों ने प्रचारित करनी शुरू की थी. दयानंद सरस्वती जी ने तब एक प्याऊ खोला था और वह वहां जो भी गाँव वाला विश्वसनीय व्यक्ति पानी पीने आता था उसे कारतूस में चर्बी और क्रांति करने की बातें किया करते थे. इसी तरह से बंसुरिया बाबा भी घूम-घूम कर लोगों को क्रान्ति करने की बातें बता रहे थे.

आप अगर 1857 क्रान्ति की पुरानी लिखी हुई पुस्तकें पढ़ते हैं तो वहां जरुर जिक्र होगा कि मंगल पांडे बंसुरिया बाबा और दयानंद सरस्वती से कई बार मिले थे. बंसुरिया बाबा देश के दूर के हिस्सों में जन जाग्रति पैदा कर रहे थे और यह बात वह मंगल पांडे तक पहुँचाने का काम कर रहे थे. दयानंद सरस्वती जी ने सबसे पहले मंगल पांडे को क्रान्ति के लिए समझाया था. आपको बता दें कि यह दयानंद सरस्वती जी वहीँ स्वामी हैं जिन्होंने आगे चलकर आर्य समाज की स्थापना की थी. बंसुरिया बाबा तो बिहार तक की क्रान्ति का प्रचार कर रहे थे किन्तु दयानंद सरस्वती जी अटक से कटक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक आजादी का प्रचार कर रहे थे. इन सन्यासियों की चर्चा विख्यात लेखक वृन्दावन लाल वर्मा ने भी की है.

मंगल पांडे के गुरु बन गये थे यह दोनों सन्यासी

डा. एस.ऍल नागोरी और डा. प्रणव देव ने लिखा है कि बंसुरिया बाबा ने मंगल पांडे के अंदर वीरता का भाव पैदा कर दिया था. बाबा से मिलकर मंगल पांडे को यह विश्वास हो गया था कि अब उसकी1857 की यह क्रान्ति देश में बाबा जरुर फैला देंगे. बंसुरिया बाबा की सबसे बड़ी खासियत यही थी कि वह लोगों के अंदर से मृत्यु का भय निकाल देते थे.

वहीँ दूसरी तरफ स्वामी दयानंद सरस्वती जी से मंगल पांडे ने पूछा था कि आप अंग्रेजो को कारतूस और आजादी से लिए क्यों नहीं मनाते हो? तब स्वामी जी ने बताया था कि बेटा अंग्रेजो से अधिकारलेने के लिए संघर्ष करना होगा क्योकि यह अंग्रेज मांगने से अब कुछ नहीं देने वाले हैं.

इस तरह से कई जगह यह साबित हुई है कि मंगल पांडे के लिए यह दोनों सन्यासी बंसुरिया बाबा और दयानंद सरस्वती क्रांति के गुरु रहे हैं. देश में 1857 के क्रांति की आग लोगों के दिलों में जगानेका श्रेय इन दोनों सन्यासी को जाता है. किन्तु इतिहास ने इन दोनों सन्यासियों को ना जाने क्यों सिर्फ किताबों और कहानियों को समेट कर रख दिया है. आज इस कहानी और इन दोनों महानसंयासियों के बलिदान को अधिक से अधिक शेयर किये जाने की आवश्यकता है.

Chandra Kant S

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Chandra Kant S

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