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एक कलम की आत्मकथा.

Pen autobiography

यह कलम, ये पन्ने,
ये ख्वाब, और ये सपने
सब काफिर हैं.
जीने को मुतआस्सिर हैं.

जी हाँ! मैं एक काफिर हूँ. मेरा कोई भगवान नहीं है, कोई खुदा नहीं है. मैं तो सिर्फ उन ख़्वाबों और ख्यालों के सहारे जिंदा हूँ जो मुझे रोज़ नींद से जगाते हैं. कईओं की हाथों की मेहंदी और कईओं के आँखों का सूरमा हूँ मैं. चाँद से टपकी पिघली हुई रौशनी से सीली वो रात हूँ मैं. मैं ज्ञात हूँ और अज्ञात भी हूँ. मैं उस ख़त में लिखी वह धुंधली सी बात हूँ. मैं लफ्ज़ हूँ, मैं सदियों पुरानी हूँ लेकिन फिर भी सब्ज़ हूँ.

मैं वह हथियार हूँ जो खून नहीं बहाता, मैं वह हथियार हूँ जो शायद खून को बहने से बचा सके.

बोलो! है कोई मेरे जैसा?

मैं एक कलम हूँ.

इतिहास, वर्तमान और भविष्य का मूल.

लेखक मेरे प्रेमी हैं. ग़ालिब से लेकर प्लेटो, सब मेरी खूबसूरती के कायल रह चुके हैं. सदियों से सिरों को ऊपर उठाने और उनकी गर्दनों को मज़बूत बनाने का काम किया है मैनें. लोगों की आवाज़ को ताकत देकर सारे विश्व तक पहुंचाया है मैनें. मेरे कई रूप हैं. कभी गांधी की विनम्रता बनी हूँ तो कभी हिटलर की नफरत. कभी टैगोर की कविताएँ तो कभी मंटो की कहानियां!

कभी किसी की जेब में सजती हूँ तो कभी किसी के कान पर.

भगवान बनकर धर्म लिखे हैं मैंने. सियासतें उठाई और गिराई हैं.

कभी ख़त लिखे तो कभी कसीदे. लेकिन थकी नहीं. बस कर्म करती गई!

फेंकी गई हूँ, गली-कूचों से उठाई गयी हूँ!

इस दुनिया को बखूबी मेरी पहचान पता है. बस मेरे अरमान नहीं पता.

लोग कहते हैं कि आज की आधुनिक दुनिया में मेरी एहमियत काफी कम हो गयी है. लेकिन मेरा मानना कुछ अलग है. मेरी आज भी इज्ज़त की जाती है और मुझे पूरा भरोसा है कि इसी तरह मेरी इज्ज़त की जायेगी. मैं ज़्यादा कुछ नहीं मांगती, बस तुम्हारी मेज़ का एक कोना और थोड़ी सी इज्ज़त. और बस  ख्यालों को मरने मत दो, नहीं तो मेरे अस्तित्व का क्या फायदा?

कल फिर उठाई जाऊँगी मैं. कल फिर कुछ पन्नों को सजाऊँगी.
कल फिर मैं कलम कहलाऊँगी.

पन्ने वही हैं,
कलम भी वही है.
बस सफ्हे नए होंगे.

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