जीवन शैली

क्या होगा अगर हम सब अपने धर्म को भूलकर मानव धर्मं का अनुकरण करे?

मानवता शब्द  सुनते  ही  हमारे  ज़हेन  में  तरह-तरह  की  भाव-भंगिमाएं तैरने लगती है.

यह अपने भीतर सारे धर्मों को समेटे हुए है.

यहाँ से इंसान की सीमाएं असीमित हो जाती हैं और वो दुनिया की सारी बंदिशों को तोड़, बस मानवता के रंग में सराबोर हो लोगों से एक अच्छा रिश्ता क़ायम करता है. मानव जाति के लिए निःस्वार्थ भाव से की जाने वाली सेवा ही सही मायनों में मानवता शब्द को पारिभाषित करती है क्योंकि सारे धर्मों से परे मानव जाति के कल्याण के लिए किया जाने वाला कार्य ही सर्वोपरि है.

अपने अस्तित्व की परवाह किये बिना दूसरों के लिए अपने आपको समर्पित कर देना और शून्य में विलीन हो जाना ही सच्ची मानवता है.

मानवता के कई रूप हैं और हर रूप में समर्पण पहली और आवश्यक शर्त है.

मानवता की ओर बढ़ने के लिए प्रेम पहला क़दम है.

शक़, अविश्वास, अभिमान, छल, झूठ, इर्ष्या, द्वेश, कपट, स्वार्थ और क्रोध जहाँ से ख़त्म होते हैं प्रेम वहीँ से शुरू होता है. मानवता वो है जो हमें कुछ भी ग़लत करने से रोकती है, उसके लिए किसी धर्म से जुड़ा होना और किसी सबूत की ज़रूरत नहीं होती. हम स्वयं ही सही और ग़लत का फ़ैसला कर लेंगे, उस दशा में मानवता ही मुख्य धर्म होगा. आज प्रेम के अभाव में पूरा समाज तनाव के घेरे में है, क्योंकि हमारे अन्दर दूसरों के लिए समर्पण का भाव ही नहीं रहा. हम ज़िम्मेदारियों से भागने लगे हैं, जो व्यक्ति दूसरों की सहायता के लिए हमेशा तैयार रहता है, भगवान् भी उसकी सहायता करते हैं.

सबकी सहायता करने का मतलब है अपनी सहायता, क्योंकि जब हम ज़रूरतमंदों की सहायता सच्चे मन से करते हैं तो हमें दिली ख़ुशी मिलती है.

हम ज़ात-पात में बेवजह फंस से जाते हैं, अगर हम सारे धर्मों को छोड़, मानवता धर्म को अपना लें और बिना कुछ की आशा किये बस दूसरों के लिए कुछ करें तो हमें आत्मसंतुष्टि के साथ-साथ आत्मिक ख़ुशी भी मिलेगी. इसलिए ज़रूरत है तो बस अपनी तरफ़ से एक क़दम बढ़ाने की…..!

मानवता पहला धर्म है, जब हम प्राणी मात्र से प्रेम करेंगे तो फ़िर उस दिन से काला-गोरा, हिन्दू-मुस्लिम का भेद-भाव ख़ुद-ब-ख़ुद ख़त्म हो जाएगा. निःस्वार्थ भाव से दूसरों की मदद के लिए किये गए सभी कार्य किसी न किसी रूप में हमारे जीवन के लिए शुभ फलदायी होते हैं और हमारे व्यक्तित्व को महान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.

इंसान स्वार्थी हो चला है, केवल अपने स्वार्थ के लिए ही जीता है, लेकिन इसके विपरीत स्वार्थी होने के साथ-साथ वो बेबस और लाचार भी हो गया है. वो दुनियाँ की इस भीड़ में भी ख़ुद को अकेला ही समझता है. कहीं न कहीं उसे यह तो इल्म है कि वो समाज से कटता जा रहा है, लेकिन वो अपने आपको ग़लत कर्मों से रोक पाने में असमर्थ और पंगु हो चुका है. दिल के कहीं एक कोने में उसकी भी थोड़ी चाह है कि मानव ज़ाति की सेवा के लिए कुछ समय अपने जीवन का दे, पर पता नहीं क्यूँ वो एक क़दम आगे बढ़ाकर दो क़दम पीछे चला जाता है. कहते हैं…..

मुझे अपने हाथों से गले लगा लो यारों, नहीं तो यही हाथ किसी दिन भीड़ का रूप लेकर मेरी गर्दन न काँट दे…..!

Arbind Verma

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