भारत

आखिर मीडिया को इतना ‘सच’ दिखाने की बेचैनी क्यों?

मीडिया के मूल कर्तव्यों में से एक है जनता के सामने हर पक्ष रखा जाना, लेकिन कुछ मुद्दे ऐसे होते हैं जिनका अन्य पक्ष नहीं होता. उदहारण के लिए दुष्कर्म को ये कहकर उचित नहीं ठहराया जा सकता कि महिलाएं बाहर न निकलें या छोटे कपड़े न पहनें. इसी तरह भ्रष्टाचार का भी कोई दूसरा पक्ष नहीं हो सकता.

मीडिया के खिलाफ सत्ता पक्ष का अनुदार ही नहीं, बल्कि दमनकारी भाव नया नहीं है. संविधान अंगीकार होने के एक साल के भीतर ही तमाम बंदिशें प्रेस पर असंवैधानिक रूप से लगा दी गईं थीं. उदहारण के तौर पर स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार 19(1) (अ) को लेकर संविधान निर्माताओं ने मात्र चार प्रतिबंध- राज्य की सुरक्षा, नैतिकता, मानहानि एवं अदालत की अवमानना लगाए, लेकिन एक साल में ही संविधान सभा के फैसले को दरकिनार करते हुए तत्कालीन सरकार ने पहले संविधान संशोधन के ज़रिए तीन नए प्रतिबंध-जन-व्यवस्था, विदेशी राष्ट्र से मैत्रीपूर्ण संबंध और अपराध करने के लिए उकसाना शामिल कर लिया. जन-व्यवस्था रूपी प्रतिबंध महज इसलिए लाया गया क्योंकि तत्कालीन शासन को सुप्रीम कोर्ट का रोमेश थापर बनाम मद्रास में प्रेस के पक्ष में किया गया फैसला पसंद नहीं आया.

संविधान निर्माताओं की भावना के साथ शायद इतना बड़ा खिलवाड़ पहले कभी नहीं हुआ. संविधान के अनुच्छेद 13(2) में स्पष्ट रूप में लिखा हुआ है कि राज्य ऐसा कोई भी कानून नहीं बनाएगा जिससे किसी भी प्रकार से मौलिक अधिकार बाधित होते हों. इसके बावजूद संसद में प्रथम संशोधन के ज़रिए प्रेस स्वतंत्रता को ज़बरदस्त तरीके से बाधित किया गया. इस संशोधन के तत्काल बाद प्रेस एक्ट 1951 लागू किया गया और 185 अखबारों के खिलाफ सरकार ने कार्रवाई की. इस संविधान संशोधन से कुपित होकर संविधान-सभा के सदस्य आचार्य कृपलानी ने कहा, ये संशोधन एक विचित्र छलावा है और सरकार की ऐसी मंशा के बारे में संविधान सभा सोच भी नहीं सकती थी. उनका मानना था कि अनुच्छेद 13(2) के स्पष्ट मत के बाद भी अभिव्यक्ति स्वतंत्रता को बाधित करना संविधान की आत्मा के साथ खिलवाड़ करने जैसा है. इन सब बातों से बिना विचलित हुए सत्ताधारियों ने 1971 में एक अन्य संशोधन के ज़रिए 13(2) के प्रभाव को ख़त्म कर दिया. बाद में भी कुछ ऐसे प्रयास हुए जिनके माध्यम से प्रेस को पंगु बनाने की कोशिश की गई, परंतु इमरजेंसी के बाद से शासकों को ये अहसास हो गया कि इसे छेड़ना देश की प्रजातांत्रिक जनभावनाओं से खिलवाड़ करना होगा. स्व-नियमन के जिस मार्ग पर आज का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया चल रहा है उसकी पहली ही शर्त है कि हर सलाह को खुले मन से आने देना और अपने प्रति समाज के हर वर्ग की राय को बगैर किसी पुर्वाग्रह के देखना.

मीडिया की आलोचना करने में तीन तरह के लोग होते हैं. एक जो आलोचना करके मीडिया के खिलाफ एक सरकारी नियामक/ नियंत्रक संस्था बनाने के मंसूबे को हवा देकर खुद उसका प्रमुख बन दिन-रात टीवी में अपना चेहरा दिखाना चाहते हैं. दूसरे, वे जो इसकी निंदा के नियमित लेख लिखकर आर्थिक आमदनी करने के अलावा समाज में बौद्धिक जुगाली के ज़रिए बने रहना चाहते हैं. तीसरा वो वर्ग है जो मीडिया में रहकर मोटी तनख्वाह लेकर समाजवादी चेहरा बनाए मीडिया को ही गाली देता है और ऐसा करके वो बताना चाहता है कि देखो हम नैतिक रूप से कितने मज़बूत हैं. मीडिया की निंदा सकारात्मक भाव से होनी चाहिए न कि अपनी दूकान चमकाने के लिए.

Devansh Tripathi

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