ENG | HINDI

गणेश उत्सव मनाने का महत्व क्या है ! कैसे मनाना चाहिए !

गणेशजी
गणेशजी का उत्सव – कन्या राशि में गुरु-चंद्र की युति के साथ गणेश स्थापना हुई जो देश के लिए आनंददायक समय होंगा। इसके पूर्व ऐसा २८ अगस्त १९५७ को ६० साल पूर्व हुआ था।
जब कन्या राशि में गुरु-चंद्र की युति के साथ गणेश स्थापना हुई थी, एवं उस वर्ष भी ग्यारह दिनों तक गणेश उत्सव मनाया गया था।
१-माता पिता की आज्ञा सर्वोपरि-
पित्रोश्च पूजनं कृत्वा प्रक्रान्तिं चं करोति य:।
तस्य वै पृथिवीजन्यफलं भवति निश्चितम्।।
अर्थ-जो माता-पिता की पूजा-प्रणाम करता है। उसे पृथ्वि की परिक्रमा का फल प्राप्त होंता है। उसे संसार के सभी सुख प्राप्त होंते है।
गणपती को हमारे जीवन में कई बातों को सीख लेने की प्रेरणा देते है। बाल्यकाल में ही उनकी माता द्वारा उनको द्वारपाल का कार्य दिया था। जो उन्होनें सहर्ष स्विकार किया तथा उसका दृढृता से पालन किया। माता की आज्ञा के पालन में उन्होनें प्राणों का भी मोह नही किया। उनके इसी बलिदान का फल उनको अग्रपूजा के रूप में प्राप्त हुआ। उनको सभी और सम्मान प्राप्त हुआ। हर व्यक्ति को गणेशजी यह संदेश देते है की माता-पिता की आज्ञा का पालन उनको सर्वोपरी बना सकता है। शास्त्रों मे कहा गया है, कि जो कुछ न करके केवल अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन और सेवा कर लेता है। उसको अपने जीवन में कभी कष्ट का अनुभव नही होता है तथा उसको सभी और से सम्मान एवं समृद्धि प्राप्त होती है।
२-गणेश की उपेक्षा पतन का कारण-
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा।
संग्रामे संकटे चैव विघ्रस्तस्य न जायते।।
गणेश बुद्धि एवं विद्या देने वाले देवता है। रिद्धि एवं बुद्धि उनकी पत्नि तथा लाभ एवं क्षेम उनके पुत्र है। पूर्व काल में शिक्षा कार्य आरंभ करने के पूर्व बालकों का गणेश जी का स्मरण कराया जाता था। तख्ती पर सर्वप्रथम उनका ही नाम लिखाया जाता था। जिससे वह जो विद्या ग्रहण करते थे उसको सात्विक कार्यो में लगाते थें। गणेशोत्सव का आयोजन भी भगवान की भक्ति एवं देश भक्ति के लिए किया जाता था। वर्तमान में यह एक दिखावा बन कर रह गया है। जब तक पालक एवं विद्यार्थी गणेश पूजन को महत्व देते रहें। बुद्धि शुद्ध बनी रही। वर्तमान में हम प्रत्यक्ष देखते है कि वह अधिकतम युवा वर्ग एवं विद्यार्थी अनैतिकता और अनुशासनहिनता की और अग्रसर हो रहे है। क्योंकि अब अध्ययन गणेशजी से आरंभ न होकर ए, बी सी, डी से आरंभ होता है। बालकों की बुद्धि अशुद्ध होकर माता-पिता के लिए ही कष्टकारक हो रही है।
३-कुतर्कों के सवार है। ज्ञान गणपती-
मूषकं वाहनं चास्य पश्यन्ति वाहनं परम्।
तेन मूषकवाहोयं वेदेषु कथितोभवत्।।
गणेशजी की सवारी है चूहा अर्थात मूषक चूहा हर वस्तु को कुतर डालता है। वह यह नही देखता की वस्तु आवश्यक है या अनावश्यक, किमती है अथवा बेशकिमती वह बिना कारण उसे कुतर डालता है। इसी प्रकार कुतर्की भी यह विचार नही करते की कार्य शुभ है अथवा अशुभ। हितकर है अथवा अहितकर वह हर कार्य में कुतर्को द्वारा व्यवधान उत्पन्न करते है। किंतु ज्ञान का उदय होते ही कुतर्को का  अंधकार समाप्त हो जाता है। कुतर्क दब जाता है। गणेश बुद्धि एवं ज्ञान है तथा कुतर्क मूषक है। जिसको गणेशजी ने अपने निचे दबा कर अपनी सवारी बना रखा है। यह हमारे लिए भी शिक्षा है कि कुतर्को को परे कर उनका दमन कर ज्ञान को अपनाएं।
४-गणेश के साथ आएं समृद्धि-
सिद्धिबुद्धिपतिं वन्दे ब्रह्मणस्पतिसंज्ञितम्।
मांङगल्येेशं सर्वपुज्यं विघ्रानां नायकं परम्।।
गणेश की दो पत्नि है। बुद्धि एवं सिद्धि तथा दो पुत्र लाभ एवं क्षेम। गणेश का पूजन अर्थात गणेश जी के गुणों को अपनानें से बुद्धि शुद्ध होती है तथा सिद्धि की प्राप्ति होती है। गणेश जी का गुण है। सतत प्रयास करना, माता-पिता का आज्ञाकारी होना, इमानदारी से सद़कार्य करना उपलब्ध वस्तुओं सावधानी से उपयोग करना ऐसा करने वाला व्यापार, नौकरी एवं जीवन में लाभ प्राप्त करता है तथा उस लाभ की रक्षा करने की शक्ति अर्थात क्षेम की भी प्राप्ति होती है। गणेशजी अपने साथ इन चारों को भी साथ लेकर आते है। वह जो गणेश के गुणों का अपनाते है। उनका पूजन भक्ति करते है। वह निरंतर अपनी बुद्धि को शुद्ध रखकर ज्ञान, सुख, धन, वैभव, ऐश्वर्य प्राप्त करते है।
५-गणेशजी प्रथम पूज्य क्यों-
ऊंकारमाद्यं प्रवदन्ति संतो वाच: श्रुतीनामपि यं गृणन्ति।
गजाननं देवगणानताङ्घ्रिं भजेहमर्धेन्दुकृतावतंसम्।।
कोई भी शुभ कार्य के पहले गण्ेाशजी का पूजन किया जाता है। क्योंकि हर कार्य को आरंभ करने के पूर्व श्रद्धा एवं विश्वास का होना आवश्यक होता है। श्री रामचरितमानस में पार्वती जी को श्रद्धा एवं शंकरजी को विश्वास का रुप माना गया है। गणेशजी को इन दोनों की ही संतान है। अर्थात कोई भी कार्य श्रद्धा एवं विश्वास के साथ किया जाए तो वह निर्विघ्र संपन्न होता है तथा लाभ दिलाने वाला  एवं सफलता दायक होता है। गणेशजी को उनके आकार के कारण ओंकार स्वरुप भी कहा जाता है। जिस तरह हर मंत्र के आरंभ में ओंकार का प्रयोग होता है। उसी तरह हर शुभ कार्य में सर्वप्रथम गणेश का पूजन होता है।
६-गृहस्वामी को होना चाहिए गणेश के समान-
ईश्वर: सर्वभोक्ता च चोरवत्तत्र संस्थित:।
स एव मूषक: प्रोक्तो मनुजानां प्रचालक:।
मायया गूढरूप: सन् भोगान भुङत्के हि चोरवात।।
जिस तरह गणेश जी का सर हाथी के  समान धड़ मनुष्य के समान एवं सवारी चूहे की होती है। उसी तरह के गुण घर के स्वामी को भी अपनाना चाहिए। जैसे हाथी गंभीर होता है, दूर दृष्टि रखता है, तथा खुब विचार कर ही कार्य करता है, क्रोध भी कम करता है।  वैसे ही घर के मुखीया को धैर्य से कार्य करना चाहिए। गणेशजी का वाहन चूहा जिस तरह से छुपा हुआ रहता है। विशेष प्रयोजन से ही वह बाहर आता है तथा अपना कार्य करके वापस छुप जाता है। उसी तरह गृहस्वामी को अपनी योजनाओं को गुप्त रखना चाहिए, तथा किसी विशेष प्रयोजन एवं कार्य सिद्धि के लिए ही उसको प्रकट करना चाहिए। इस तरीके से कार्य करने पर परिवार समृद्धि की और अग्रसर होता है।
 
७-एकता का संदेश दिया गणेश ने-
गणानां जीवजातानां य: ईश:- स्वामी स गणेश:।
गणेश शब्द का अर्थ जो समस्त जीव जाती के स्वामी हो-
गण का अर्थ राज्य भी होता है। अत: सभी गणों का स्वामी गणेश कहलाता है।
गणेशजी के  जन्म के पहले देवता दानवों से त्रस्त थे। उनमें सगंठन का अभाव था । गणेशजी ने  जन्म के पश्चात सबको एक किया तथा उनका सफलता पूर्वक नेतृत्व किया।  कई दानवों को उन्होनें समाप्त किया। इसी से प्रथम पूज्यनीय, लोकप्रिय एवं सम्मानीय हुए। सभी को साथ लेकर कार्य करना उनका लक्ष्य था। कार्तीकेय देव सेना के सेनापती थे तथा गणेशजी अपनी युक्तियों एवं बुद्धि बल से  देव शक्तियों को संगठीत करने का कार्य करते थे। अपनी बुद्धिमत्ता एवं सभी को साथ लेकर कार्य करने से उन्होनें वह कार्य किए जो किसी ओर से नही हो सकें। गणपती का संगठन-तत्व आसान एवं देश की उन्नती के लिए ग्रहण करने योग्य है।
८-गणपती का दर्शन पिछे से नही-
पृष्ठेथ पिप्पलजुषौ रतिपुष्पवाणौ
सव्ये प्रियङगुमभितश्च मही वराहौ।।
शास्त्रों में उल्लेखीत है कि गणेश का दर्शन पिछे से नही करना चाहिए। क्योकिं उनकी पीठ में दरिद्रता  या काम का वास होता है तथा सामने से उनका दर्शन करना सिद्धि बुद्धि प्राप्त कराने वाला होता है। अर्थात कोई भी संकट आए तो उसका सामना करों उससे मुंह छिपाने की आवश्यकता नही है। मुसीबतों से मुंह छिपाने से वह छुटती नही बल्कि ओर बढ़ती जाती है तथा उसका सामना करने से वह भाग जाती है। संकटों का आगे होकर निडरता से सामना करने वाला सफलता एवं धन पाता  है। बुरे समय में भी घबराने हताश होने के बजाय अपनी हिम्मत का कायम रखकर डटकर उसका मुकाबला करने से कुछ ही दिनों में वह समाप्त हो जाता है।
९-भीतर के शत्रुओं का शमन किया गजानन ने-
समस्तलोकशंकरं निरस्तदैत्यकुंजरं दरेतरोदरं वरं वरेभवक्त्रमक्षरम्।
गणेश द्वारा मारे गए मुख्य असुरों के नाम थे। अहंतासुर, कामासुर, क्रोधासुर, मायासुर, लोभासुर आदि। अहंतासुर अंहकार का, कामासुर काम का प्रतीक था, क्रोधासुर क्रोध का, मायासुर माया का एवं लोभासुर लोभ का प्रतीक था, अर्थात गणेश का दर्शन पूजन हमें काम, क्रोध, माया एंव लोभ से बचाने वाला होता है। यह सभी मनुष्य के भीतर के शत्रु है। गणेश जी ने इन सभी को समाप्त करने के लिए अपने अंकुश का प्रयोग किया। हमें भी अपने चित्त पर अंकुश लगाकर इन अंहकार, काम, क्रोध, माया, एंव लोभ रुपी असुरों पर नियंत्रण करना चाहिए। गणेशजी इसमें हमारें सहायक होगें तथा हमें ऋिद्धि-सिद्धि एवं लाभ क्षेम की प्राप्ति कराएगें।
10 – कैसे मनाएं उत्सव-
इस सुबह जल्दी उठकर स्नानादि से शुद्ध होकर किसी भी नदी के किनारे पर जाकर वहां से साफ मिट्टी लेकर आएं उसको छानकर एवं शुद्ध जल मिलाकर एक आठ वर्षीय बालिका से उस मिट्टी को गुंथवा ले या  फिर स्वंय उस मिट्टी से यथाशक्ति जैसे हो सके एक गणेशजी की मूर्ती का निर्माण करें। तद्नुपरांत उस गणेश जी की मूर्ती को घी एवं सिंदूर से लेपन कर दें एव जनेउ धारण करवाएं। उसके बाद सरल शब्दों में प्रार्थना करें कि, है गणेजी आप स्वयं आकर इस मूर्ती में  प्रतिष्ठित हो तत्पश्चात  धूप अगरबत्ती से लगाकर लाल पुष्पों से बना हार एवं पांच रक्त पुष्प अर्पण करें। तत्पश्चात पांच लड्डु का भोग लगाएं।
अगले दस दिनों तक रोजाना सुबह शाम इस तरह इस मिट्टी के गणेशजी की इसी तरह सेवा करें हो सके तो चालीस दिन तक करें। यह अनुष्ठान सभी प्रकार की कामना को पूर्ण करने वाला होता है।
मूंग की दाल के आटे से बने दिए गणपती जी को बनाएं।  तो सात दिनों में किसी भी प्रकार कष्ट हरण हो। आठ दिनों में संतान चाहने वालों की कामना पूर्ण हो। धन धान्य सभी प्रकार की कामना की पूर्ती करने वाला यह अनुष्ठान कोई भी कर सकता है।
दस दिनों के पश्चात इस मूर्ती को वापस नदी में ही विसर्जन कर देना चाहिए। उसके साथ में चढ़े हुए हार-फू ल को नदी में नही डाले। चढ़े हुए प्रसाद को बच्चों में बांट दें एवं स्वयं परिवार सहित ग्रहण करें। इस प्रकार दस दिनों तक करने से यह पूजा समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली होती है।