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एक बहादुर हिन्दू योद्धा ! पठान और अफगानी दोनों ही इसके यहाँ नौकरों की तरह करते थे काम और पेशावर में राज करता था यह योद्धा

हरि सिंह नलवा

भारत देश हमेशा से ही वीर-बहादुर लोगों का घर रहा है.

कहते हैं कि यहाँ की मिट्टी में ही कुछ ऐसा अनोखा है कि यहाँ खराब से खराब स्थिति में भी बहादुर जन्म लेते हैं.

आज हम आपके सामने एक ऐसे ही वीर योद्धा की कहानी लेकर आये हैं. बात उन दिनों की है जब अफगान से आने वाले शासकों के पूरा भारत डरता था. लेकिन सरदार हरि सिंह नलवा ने पूरे अफगानिस्तान को ही हिला कर रख दिया था. पठान और अफगानी लोग तो इनके यहाँ पर नौकरी किया करते थे.

लेकिन वक़्त का रोना देखिये कि हमारे इतिहास में सभी विदेशी मुस्लिम शासकों का तो नाम है, यहाँ तक की अंग्रेजी राजा-रानियों का भी अता-पता है लेकिन इस महान और वीर योद्धा का नाम कहीं नहीं मौजूद है.

कौन हैं हरि सिंह नलवा

इतिहासकार और लेखक डॉ. सतीश चन्द्र मित्तल अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि हरि सिंह नलवा का जन्म 1791 ई. में अविभाजित पंजाब के गुजरांवाला में हुआ था. 1805 ई. के वसंतोत्सव पर एक प्रतिभा खोज प्रतियोगिता में, जिसे महाराजा रणजीत सिंह ने आयोजित किया था, हरिसिंह नलवा ने भाला चलाने, तीर चलाने तथा अन्य प्रतियोगिताओं में अपनी अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया. इससे प्रभावित होकर महाराजा रणजीत सिंह ने उन्हें अपनी सेना में भर्ती कर लिया था. शीघ्र ही वे महाराजा रणजीत सिंह के विश्वासपात्र सेना नायकों में से एक बन गये थे.

एक बार शिकार के समय महाराजा रणजीत सिंह पर अचानक एक शेर के आक्रमण कर दिया, तब हरि सिंह ने उनकी रक्षा की थी, तो इनका नाम सरदार हरि सिंह नलवा रख दिया गया था.

जब महाराजा रणजीत सिंह ने सरदार हरि सिंह को अपना सेनाध्यक्ष चुना तो उसके बाद से राजा की सल्तनत देखते ही देखते बढ़ने लगी. ना जाने क्यों हरि सिंह को देश के बाहर जाकर साम्राज्य स्थापित करने की पड़ी थी. प्रारंभ में तो सभी महाराजा रणजीत सिंह को बोलते थे कि वह हरि सिंह को रोकें किन्तु एक समय बाद इन्होनें अपनी जीत से सभी का मुंह हमेशा के लिए बंद कर दिया.

जब अफगान को जीत लिया इस योद्धा ने

ऐसा बोला जाता है कि तब अफगान की तरफ आँख दिखाने की हिम्मत कोई भी शासक नहीं करता था. आगे लेखक लिखता है कि अहमदशाह अब्दाली के पश्चात् तैमूरलंग के काल में अफगानिस्तान विस्तृत तथा अखंडित था. इसमें कश्मीर, लाहौर, पेशावर, कंधार तथा मुल्तान भी थे. हेरात, कलात, बलूचिस्तान, फारस आदि पर उसका प्रभुत्व था. हरि सिंह नलवा ने इनमें से अनेक प्रदेशों को महाराजा रणजीत सिंह की विजय अभियान में शामिल कर दिया. उन्होंने 1813 ई. में अटक, 1818 ई. में मुल्तान, 1819 ई.में कश्मीर तथा 1823 ई. में पेशावर की जीत में विशेष योगदान दिया. अत: 1824 ई. तक कश्मीर, मुल्तान और पेशावर पर महाराजा रणजीत सिंह का आधिपत्य हो गया. मुल्तान विजय में हरिसिंह नलवा की प्रमुख भूमिका रही . महाराजा रणजीत सिंह के आह्वान पर वे आत्मबलिदानी दस्ते में सबसे आगे रहे. इस संघर्ष में उनके कई साथी घायल हुए, परंतु मुल्तान का दुर्ग महाराजा रणजीत सिंह के हाथों में आ गया.

हरि सिंह का भय था ऐसा कि मौलवी नमाज छोड़कर भाग जाते थे

कई इतिहासकार यह भी लिखते हैं कि सरदार हरि सिंह नलवा का लोगों में काफी खौफ था. घर-घर में नलवा जी के ही किस्से चला करते थे. ऐसा बोला जाता है कि कई बार जब सरदार नलवा जी के आने की खबर होती थी तो मौलवी नमाज पढ़वाना तक छोड़कर भाग जाते थे. इनका नाम सुनते ही मुस्लिम सेनापतियों की तलवार हाथ से ही छुट जाती थी.

जब शहीद हुए, सरदार हरि सिंह नलवा

पेशावर पर नलवा जी का अधिकार था. अफगानों ने पेशावर पर अपना अधिकार करने के लिए कई बार हमले किये. 30 अप्रैल 1837 ई. को जमरूद में भयंकर लड़ाई हुई, बीमारी की हालत में भी हरि सिंह ने यह लड़ाई लड़ी और अफगानों की 14 तोपें छीन लीं.  परंतु दो गोलियां हरि सिंह को लगीं तथा वे वीर गति को प्राप्त हो गये. लेकिन सबसे बड़ी बात यह थी कि शहीद होते-होते ललड़ रहे इस योद्धा ने पेशावर को हाथ से नहीं जाने दिया था.

लेकिन कितने दुर्भाग्य की बात है कि आज हम इतने महान योद्धा की कहानी, अपने बच्चों को नहीं पढ़ा पा रहे हैं. यह कहानी किसी भी स्कूल की बोर्ड में इसलिए नहीं है क्योकि इतिहास लिखने वालों ने भारत देश का झूठा इतिहास लिखा है. आज हमारा फर्ज है कि इस कहानी को जन-जन तक पहुँचाया जाये. इसके लिए आपको ज्यादा से ज्यादा इस कहानी को शेयर करना होगा.